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अन्नाभाऊ साठे का उपन्यास ‘फकीरा’ : दलितों में वर्ग चेतना का स्वरघोष

लेखन शुरू करने से पहले ही मैं इस हकीकत को भली-भांति समझ चुका था कि जो कलाकार समाज की चिंता करत है, समाज भी उसकी चिंता करता है। मुझे इस देश के सामाजिक अंतर्विरोधों की भी जानकारी थी। मैं प्रतिदिन यही सपना देखता था कि मेरा देश खुशहाल और सभ्य होगा तथा यहां भरपूर समानता होगी। और महाराष्ट्र एक दिन धरती का स्वर्ग बनेगा। इन सपनों को देखते हुए ही मैंने अपना लेखनकर्म किया है। आप जीवन की सचाइयों को महज कल्पना और बुद्धिचातुर्य के भरोसे आप जीवन की हकीकत को नहीं समझ सकते। आपके दिल में उसे समझने की योग्यता होनी चाहिए। लेखक की आंखें जो देखती हैं, जरूरी नहीं है कि वही लेखन में मददगार होगा, इसके विपरीत वह उसे भटका भी सकती है। 

मैं इसमें पूरी तरह विश्वास रखता हूं कि यह धरती शेषनाग के फन पर नहीं टिकी है, अपितु यह दलितों और मजदूरों की हथेलियों पर टिकी है। मैं दलितों के जीवन को ईमानदारी और दृढ़ विश्वास से दर्शाने की कोशिश करता रहा हूं।’

—अन्नाभाऊ साठे, उपन्यास ‘वैजयंता’ की भूमिका से.

यह कहावत जीवन छोटा भले हो, सार्थक होना चाहिए—अन्नाभाऊ साठे पर एकदम खरी उतरती है। 1 अगस्त 1920 को महाराष्ट्र के सांगली जिले के वाटेगांव में जन्मे अन्नाभाऊ मात्र 48 वर्ष जिए थे। इतनी छोटी-सी उनकी जिंदगी जितनी संघर्षपूर्ण थी, उतनी रचनात्मक भी थी। मात्र दस वर्ष की अवस्था में वे नाटक-मंडलियों से जुड़ गए। जन्म गांव में हुआ था, परिस्थितियों ने मुंबई ला पटका। वहां सड़क किनारे लगे फिल्मी पोस्टरों और साइन बोर्डों को देखकर पढ़ना-लिखना सीखा। अपनी नाटक मंडली बनाई। मजदूर आंदोलनों से जुड़े। महाराष्ट्र निर्माण आंदोलन में हिस्सा लिया। इसके साथ-साथ उन्होंने मराठी में 35 उपन्यास, 13 कथा संग्रह, 14 लोकनाट्य, 3 नाटक, एक यात्रा वृतांत, दर्जनों पोबाड़े, लोकगीत और एक यात्रा-वृतांत की रचना की। उनकी कृति ‘माझा रशियाचा प्रवास’ को दलित साहित्य का पहला यात्रा-वृतांत होने का गौरव प्राप्त है। उन दिनों भारत से ज्यादा वे रूस में प्रसिद्ध थे। उनकी कई कृतियों का रूसी अनुवाद हो चुका था। 1998 तक उनके सात उपन्यासों पर फिल्में बन चुकी थीं। वे कदाचित अकेले ऐसे दलित साहित्यकार हैं, जिनकी रचनाएं 27 विदेशी भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं। दलित साहित्य सम्मेलन की शुरुआत करने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। 1958 में दलित साहित्य सम्मेलन के प्रथम आयोजन में उन्हेंने कहा था—‘पृथ्वी किसी शेषनाग के फन पर नहीं, अपितु दलितों और श्रमजीवी वर्ग के कंधों पर टिकी हुई है।’

‘फकीरा’ उनका सबसे चर्चित उपन्यास है। इसकी रचना 1959 में हुई थी। 1961 में इसे महाराष्ट्र सरकार के सबसे बड़े पुरस्कार से नवाजा गया। प्रकाशन के बाद से अब तक इसके करीब दो दर्जन संस्करण आ चुके हैं। इस उपन्यास में डॉ. आंबेडकर के सामाजिक न्याय और मार्क्स के वर्ग-संघर्ष दोनों को इस तरह पेश किया गया है कि वे परस्पर पूरक दिखाई पड़ते हैं।

फकीरा की कथावस्तु

उपन्यास का कथानक मुख्यत: दो गांवों के बीच फैला हुआ है। शिगांव और वाटेगांव। कहानी शिगांव से शुरू होती है। वहां हर साल ‘जोगिणी’ की जात्रा(यात्रा) निकाली जाती है। उस उत्सव में पूरा गांव शामिल होता है। जोगिणी यानी पीतल का कटोरा, जिसे ग्रामदेवी का प्रतीक माना जाता है। जोगिणी पर कब्जा होने का अर्थ है, ग्रामदेवी का अपने पक्ष में होना। यह पूरे गांव के लिए मान-सम्मान और प्रतिष्ठा का विषय है। शिगांव वाले खुश हैं। क्योंकि जोगिणी उनके कब्जे में है। वे मग्न-मन ‘जात्रा’ की तैयारी पर हैं। उधर पड़ोस के वाटेगांव का शंकरराव पाटिल चाहता है कि जोगिणी उसके गांव आ जाए। ताकि उसकी और वाटेगांव की प्रतिष्ठा को चार चांद लग जाएं। वह यह सोचकर परेशान है कि गांव में एक भी लड़ाका ऐसा नहीं है,  जो शिगांव वालों से जूझकर जोगिणी को वाटेगांव ला सके। एक दिन वह रानोजी से अपने मन की बात कहता है। जाति से मांग रानोजी कठकाठी से मजबूत, फुर्तीला और दुस्साहसी है। पाटिल की बात उसे लग जाती है। वह जोगिणी को वाटेगाव लाने की ठान लेता है।

जोगिणी को शिगांव से लाना, पूरे गांव के साथ जंग जीतने जैसा है। जोगिणी जिस गांव के अधिकार में हो, वह प्राण प्रण से उसकी रक्षा करता है। जात्रा के दिन तो पूरा गांव हथियारों से लैस और सतर्क होता है। गांव की सीमा में पकड़ गए तो खैर नहीं। गांववाले तुरंत सिर कलम कर देते हैं। यह सोचकर कि जोगिणी लाते हुए मर भी गया तो यश का भागी बनूंगा—रानोजी बगैर किसी को बताए शिगांव के लिए निकल पड़ता है। वहां उसकी भेंट अपने दोस्त भैरू से होती है।  वह भैरू से वाटेगांव जाकर, शंकर पाटिल और विष्णुपंत तक यह संदेश पहुंचाने को कहता कि दोनों गांव की सीमा पर जोगिणी का स्वागत करने को तैयार रहें।

शिगांव में जात्रा अपने चरम पर थी। एक संकरे रास्ते पर मौका देख रानोजी जोगिणी पर झपट पड़ता है। शिगांव के सबसे ताकतवर आदमी को मारकर वह जोगिणी को अपने कब्जे में ले लेता है। फिर रात के अंधेरे का फायदा उठा, घोड़े पर सवार हो वहां से भाग छूटता है। गांव वाले उसका पीछा करते हैं। घोड़ा दौड़ाता हुआ रानोजी शिगांव की हद पार कर, वाटेगांव की सीमा में प्रवेश कर जाता है। नियमानुसार अब उसे कोई खतरा नहीं होना चाहिए। शिगांव वालों को वापस लौट जाना चाहिए। लेकिन नियम की परवाह किए बिना शिगांव वाले, रानोजी का पीछा करते हैं। आखिरकार वे रानोजी तथा उसके विश्वसनीय घोड़े ‘गबरिया’ को मार डालते हैं।

कथानक करवट बदलता है। कहानी घूमकर वाटेगांव के मांगबाड़ा में पहुंच जाती है। गरीबी से बेहाल, जातीय भेदभाव से सताए लोगों की बस्ती। एक-दूसरे से सटकर अपनी-अपनी दरिद्रता की कहानियों को सुनातीं, उनकी जिंदगी जैसी बेहाल उनकी झुग्गियां। छूत के डर से गांव वाले उसमें पांव रखने भी डरते हैं। लेकिन रानोजी के बलिदान के बाद हालात एकदम बदल जाते हैं। रानोजी ने जोगिणी को गांव लाने के लिए जान दी है। पूरे गांव का मान बढ़ाया है, इस कारण पूरे गांव में उसकी चर्चा है। हर किसी का हृदय रानोजी के प्रति सम्मान से भरा है। सब जानते हैं कि शिगांव वालों ने छल से रानोजी हत्या की है। वे रानोजी की मौत का बदला लेने को उतावले हैं। दोनों गांवों के बीच का तनाव खूनखराबे में न बदल जाए, इसलिए उसे रोकने के प्रयास भी हो रहे हैं। आखिरकार शिगांव वालों के माफी मांगने और रानोबा का सिर वापस करने की शर्त पर मामला सुलझ जाता है। जोगिणी वाटेगांव के कब्जे में आ जाती है। रानोजी का पूरे मान-सम्मान के साथ अंतिम संस्कार कर दिया जाता है।

फकीरा रानोजी का बड़ा बेटा है। अपने पिता से सवाई कठ-काठी। युद्ध कौशल में निपुण। बेहद साहसी, तेज और फुर्तीला। लोगों की मदद के लिए हमेशा आगे रहने वाला। पिता के बाद वह मांगबाड़े का नेता बनता है। दस वर्ष बाद कुछ शिगांव के कुछ युवक जोगिणी को वापस लाने का दुस्साहस करते हैं। फकीरा को उनके इरादों की भनक लग जाती है। वह जोगिणी की रक्षा के लिए मोर्चा जमा लेता है। वह शिगांव के लड़ाके का सफलतापूर्वक मुकाबला करता है। इससे पहले कि वह वाटगांव की सीमा से बाहर जाए, फकीरा उसे दबोच लेता है। चाहता तो वह पकड़े गए युवक का सिर कलम कर देता। यही नियम था। लेकिन वह ऐसा नहीं करता। दंड स्वरूप केवल कलाई से उस युवक के हाथ काट लेता है।

फकीरा और दलित चेतना

‘फकीरा’ के माध्यम से हम सात-आठ दशक पहले के भारतीय गांवों के ताने-बाने को समझ सकते हैं। ब्रिटिश सरकार जब मांग जाति को अपराधी जातियों की श्रेणी में डाल देती है, तब गांव के सवर्ण विष्णुपंत और शंकर पाटिल उसके विरोध में आवाज उठाते हैं। कथापात्र फकीरा भी नए अध्यादेश के विरुद्ध है। उसका आक्रोश कई तरह से सामने आता है। उपन्यास में कुछ उपकथाएं भी चलती हैं। एक बार ऊंची जाति का चौगुले(ग्राम्य स्तर का सरकारी कर्मचारी) महार महिला की पिटाई कर रहा था। लोगों ने उसे रोकने की कोशिश की, वह नहीं माना। उस समय मांग जाति का बहादुर युवा सत्तु आगे आता है। चौगुले उससे झगड़ पड़ता है। गुस्साया सत्तु उसकी हत्या कर देता है।

इस घटना के बाद पुलिस और ऊंची जाति के लोग उसके पीछे पड़ जाते हैं। सत्तु को घर छोड़ना पड़ जाता है। उसके बाद वह विद्रोही बन जाता है। वर्ग संघर्ष का योद्धा। वह सामंतों और सूदखोरों के बही-खाते जला देता है। दलितों पर अत्याचार करने वालों को दंडित करता है। सरकार उसके सिर पर ईनाम घोषित कर देती है। एक बार वह पुलिस और ऊंची जाति के हमलावरों के बीच बुरी तरह घिर जाता है। लोग इसकी खबर फकीरा तक पहुंचा देते हैं। फकीरा आनन-फानन में सत्तु की मदद कर, उसे दुश्मनों के चंगुल से सुरक्षित बाहर निकाल देता है।

उपन्यास की कथा-वस्तु जिस दौर की है, उसमें अकाल और महामारियां अकसर धाबा बोलती रहती थीं। उनका सबसे बुरा असर गरीब-विपन्न दलित बस्तियों पर पड़ता था। उस साल अकाल ने दस्तक दी तो मांगबाड़ा के लोग भूख से मरने लगे। फकीरा ने शंकर पाटिल और विष्णुपंत से फरियाद की। उन्होंने सरकार से मदद की गुहार की। लेकिन राहत पहुंचाने के लिए कोई नहीं आया। लोगों को भूख से बचाना फकीरा के लिए बड़ी चुनौती थी। पता चला कि अकाल की विभीषिका में भी धनाढ्यों के अन्न-भंडार भरे पड़े हैं। अपने साथियों को लेकर फकीरा ने उनपर हमला कर दिया। जानलेवा मुठभेड़ के बाद जीत फकीरा और उनके साथियों की हुई। उसने लूटे हुए अनाज भूख से छटपटाते दलित परिवारों में बराबर-बराबर बांट दिया। उसके बाद गांव में पुलिस आई। शंकर पाटिल और विष्णुपंत ने फकीरा का पक्ष लेते हैं। बताते हैं उसके कृत्य से सैकड़ों लोगों की प्राण-रक्षा हुई है। पुलिस को वापस लौट जाती है। कुछ दिनों के बाद दलितों के प्रति सहानुभूति रखने वाले विष्णुपंत और शंकरराव पाटिल को उनके पदों से हटा दिया जाता है।

नए पाटिल के दिल में गरीबों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं है। इसी बीच पुलिस हाजिरी कानून ले आई। उसके अनुसार हर मांग को पाटिल के घर जाकर, हाजिरी देने का आदेश दिया गया। अकाल के दौर में, जो समय भोजन का इंतजाम पर लगना चाहिए था, वह हाजिरी देने में खपने लगा। इससे वहां रोष पसरने लगा। पाटिल के दरबार में अपराधी की तरह खड़े होना फकीरा के लिए बेहद अपमानजनक था। सरकारी कानून की आड़ में ऊंची जातियां मनमानी कर रही थीं। मांगबाड़ा के हालात दिन-पर-दिन बिगड़ने लगे। एक दिन पाटिल ने फकीरा का भी अपमान कर दिया। यह संदेश देने के लिए कि अन्याय की अति ही विद्रोह को जन्म देती है—फकीरा ने सरकारी खजाने को लूटने की योजना बनाई। उसने खजांची रघुनाथ ब्राह्मण के पास जाकर खजाने की चाबी सौंपने को कहा। गांव में हल्ला मच गया। ऊंची जाति के लोग खजांची के मददगार बनकर पहुंच गए। पूरी रात चले संघर्ष के बाद जीत फकीरा की हुई। उसने लूटे हुए खजाने को लोगों में बांट दिया। उस लुहार को भी हिस्सा दिया, जिसे उसने खजाने के संदूक को काटने के लिए मजबूर किया था। सरकारी खजाने को लूटना सरकार को चुनौती देने जैसा था। इसपर फकीरा ने कहा था—‘एक न एक दिन मरना तो हम सभी को है। मैं एक शेर की तरह मरना चाहता हूं।’

फकीरा : एक जननायक

पुराने जमाने में धीरोदत्त नायकों के जो गुण हुआ करते थे, वे सब फकीरा के चरित्र में हैं। अपने पिता की भांति वह भी निर्भीक और बहादुर है। पूर्वजों को शिवाजी द्वारा भेंट की गई तलवार पर गर्व करता है। संकटकाल में दूसरों की मदद को तत्पर रहता है। कुछ गुण फकीरा को धीरोदत्त नायकों से भी आगे ले जाते हैं। जैसेकि संकटकाल में सरकारी खजाने को लूटकर गरीबों में बराबर-बराबर बांट देना। दार्शनिकों की भाषा में इसे ‘वितरणात्मक न्याय’ कहा जाता है। उपन्यास का संदेश है कि राज्य जब अपने कर्तव्य में चूक जाए; अथवा सत्ता से नजदीकी रखने वाली शक्तियां मनमानी पर उतर आएं तो वर्ग-संघर्ष आवश्यक हो जाता है। नागरिक समस्याओं की ओर से लापरवाही सत्तु और फकीरा जैसे जन नायकों को जन्म देती हैं।  

उपन्यास की रचना 1959 की है। उस समय तक आजादी को 12 वर्ष बीत चुके थे। वह दो ऐसी पीढ़ियों का संगम था जिसमें एक पीढ़ी ने आजादी की जंग को जिया था, दूसरी ने आजादी के वातावरण में होश संभाला था। अपने माता-पिता से आजादी से जुड़े सपनों और संघर्षों की कहानियां सुनी थीं। अब उसे लग रहा था कि वास्तविकता और देखे गए सपनों में कोई तालमेल नहीं है। इस एहसास ने ही युवा पीढ़ी के मन में संघर्ष की भावना ने जन्म लिया था। ध्यातव्य है कि जिन हालात में जीवन जीते हुए अन्नाभाऊ साठे ने अपना विपुल लेखन किया, उन्हीं हालात से ‘दलित पैंथर्स’ के नायक भी रह चुके थे। उन्होंने दलित पैंथर्स की स्थापना 1972 में, ‘फकीरा’ के प्रकाशित होने के लगभग 12 वर्ष बाद हुई। ‘दलित पैंथर्स’ की स्थापना और ‘फकीरा’ का चरित्र दोनों दोनों अपने समय और समाज से उपजी हताशा की देन हैं। इस विश्वास की देन हैं कि राज्य और समाज जब मामूली अधिकारों के संरक्षण में भी कोताही बरतने लगे जो हिंसात्मक प्रतिवाद जरूरी बन जाता है।

‘फकीरा की शुरुआत एक धार्मिक-सांस्कृतिक ‘जोगिणी’ से होती है। मगर अंत तक आते-आते लोक संस्कृति और परंपराएं बहुत पीछे छूट जाती हैं। उपन्यास पूरी तरह से दलितों की समस्याओं तथा उनके संघर्ष पर केंद्रित हो जाता है। यही इसकी खूबी है। यहूदी कहावत है—‘अगर मैं अपने लिए नहीं हूं, तो मेरे लिए कौन होगा? यदि मैं केवल अपने लिए हूं, तो मैं क्या हूं? यदि मैं इसे अभी तक नहीं समझा, तो कब समझूंगा?’ साठे बताना चाहते हैं कि दलितों, पिछड़ों, बहुजनों की समस्याओं के समाधान के लिए न तो कथित ऊंची जातियां मददगार होंगी, न ही कोई दैवी चमत्कार उन्हें उनसे मुक्ति दिलाएगा। इसके लिए उन्हें एकजुट होकर खुद ही आगे आना पड़ेगा।   

—ओमप्रकाश कश्यप

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आधुनिक लोककथा/ईश्वर की मौत

ईश्वर की मौत

देवनगरी से संदेश वायरल हुआ कि बीती रात ईश्वर दिवंगत हुआ. अगले सात दिनों तक तीनों लोकों में शोककाल लागू रहेगा. इस दौरान न तो इंद्रलोक में अप्सराओं का नृत्य होगा. न कोई हवन, कीर्तन, पूजापाठ वगैरह. संदेश की प्रति आधिकारिक रूप से भी तीनों लोकों में पहुंचा दी गई.

नारद चाहते तो शोककाल के नाम पर छुट्टी मार लेते. लेकिन चाहे जो भी हो, न तो सागर पर तरंगों का आनाजाना रुकता है, न नदियां अपना प्रवाह रोकती हैं. नारद भी ऐसे ही थे. सो निकल पड़े मृत्युलोक का जायजा लेने. वहां जो देखा उससे आंखें फटी की फटी रह गईं. शोकसंदेश का मृत्युलोक पर कोई असर नहीं था. मंदिर पहले की तरह गुलेगुलजार थे. बाहर श्रद्धालु कतार लगाए खड़े थे, भीतर पूजापाठ, भजनकीर्तन, यज्ञ आदि कर्मकांड चालू थे. हैरान नारद नगर के सबसे बड़े मंदिर के सबसे बड़े पुजारी से मिले—

मालूम है, कल रात ईश्वर नहीं रहे.’

हां, सुना तो था. एक पत्र भी मिला था, उधर पड़ा है, देख लो.’ पुजारी ने लापरवाही से एक ओर इशारा किया. वहां पुराने ग्रंथों के ढेर पर एक नया लिफाफा पड़ा था. उन ग्रंथों पर धूल जमी थी. उन्हें पहले दीमक ने खाया था. इन दिनों चूहे उनपर दांत आजमा रहे थे.’

शोककाल की घोषणा हो चुकी है. सारे उत्सव, समारोह, पूजापाठ, जश्न रोक दिए गए हैं. आप भी श्रद्धालुओं तक खबर पहुंचा दें.’ नारद ने कहा, फिर कुछ सोचकर दरवाजे की ओर मुड़े, ‘ठहरिए, मैं ही बताए देता हूं.’

! यह गजब मत करना….’ पुजारी ने टोका.

क्यों!’

देवलोक में क्या होता है, ये देवता जानें, हमारा भगवान् तो सिर्फ यह मूर्ति है. तुम देख सकते हो, यह जैसे कल मुस्करा रही है, वैसे आज भी मुस्करा रही है. बस अब आप प्रस्थान करें. श्रद्धालुओं की कतार और लंबी हुई तो सड़क पर जाम लग जाएगा.’

बातों के धनी नारद को कोई जवाब न सूझा.

हत्यारा

उस समय जब ईश्वर अपने भक्तों से घिरा हुआ था, और भक्त ‘मुक्तिमुक्ति’ की रट लगा रहे थे—किसी ने संविधान की एक प्रति उसके आगे लाकर रख दी. ईश्वर ने उसे आगेपीछे देखा, दोचार पेज उलटेपलटे, फिर चुपचाप किनारे कर दिया—

ये सब नए जमाने के चोंचले हैं. हमारे जमाने में तो एक ही पुस्तक थी—‘मनुस्मृति.’

क्या आपने उसे पढ़ा था?’ संविधान लाने वाले पत्रकार ने पूछा.

हमारे गुरुदेव ने पढ़ा होगा.’

आपने?’

हमें तो बस मरनामारना सिखाया था. गुरुदेव ने जबजैसा कहा, हम वैसे ही भिड़ गए. एक बार गुरुदेव ने कहा कि जंगल में शूद्र शंबूक वेदाध्ययन कर रहा है, उसे मार डालो, हमने….’

आपने पूछा नहीं कि ग्रंथ तो अध्ययनमनन के लिए ही होते हैं, अगर शंबूक उन्हें पढ़ रहा था तो पढ़ने देते. उसमें पाप कैसा?’

ये हम नहीं जानते. वैसे भी शंबूक से हमारी कोई जाती दुश्मनी तो थी नहीं. हमें तो बस इतना पता है कि गुरुजी ने उसे मारने का आदेश दिया और हमने उसे मार डाला.’

बगैर सोचेसमझे मार डाला?’

सोचनेविचारने का काम तो गुरुदेव का था.’ ईश्वर तर्क से बचना चाहता था.

तुम तो राजा थे. एक निर्दाेष की हत्या करने से इन्कार कर सकते थे?’

पहली बार ईश्वर हंसा, बोला—‘इन्कार कर देते तो हमें ईश्वर कौन बनाता!’

आगे बातचीत के लिए कुछ था नहीं. पत्रकार ने संविधान को उठाया और वापस चल दिया. कुछ दूर चलने के बाद उसने मुड़कर देखा, भक्तमंडली में से अनेक उसके पीछेपीछे आ रहे थे.

ओमप्रकाश कश्यप

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आधुनिक लोककथाएं

जनविद्रोह

तानाशाह का मन एक बकरी पर आ गया. बकरी भी अजीब थी. बाकी लोगों के आगे ‘मैंमैं’ करती, परंतु तानाशाह के सामने आते ही चुप्पी साध लेती थी. तानाशाह उसकी उसकी गर्दन दबोचता. टांगें मरोड़ता. कानों को ऐंठऐंठकर लाल कर देता. बकरी तानाशाह की टांगों में सिर फंसाकर खेल खेलती. दर्द भुलाकर उसकी हथेलियों में मुंह छिपा लेती थी.

तानाशाह जहां भी जाता, बकरी को अपने साथ ले जाता. जोश में होता तो बकरी को हाथों में उठा लेता. लोगों के सामने बकरी की गर्दन दबाता, उसके कान मरोड़ता, बकरी चुप रहती. तानाशाह का जोश बढ़ जाता—‘मित्रो! मैं अपनी जनता से उतना ही प्यार करता हूं, जितना इस बकरी से. यह किसी कोहिनूर से कम नहीं है. आप देख सकते हैं. कितनी गजब की सहनशीलता है इसमें….’ कहतेकहते उसके हाथ बकरी की गर्दन को कसने लगते. उसकी चुप्पी देख तानाशाह का जोश बहुगुणित हो जाता. शब्द होठों से फिसलने लगे—‘मित्रो! राष्ट्र बड़ी चीज है. हमें इसे आगे ले जाना है, बहुत आगे ले जाना है….’

आपके मंत्री देश के कमाऊ प्रतिष्ठानों को बेच रहे हैं. नोटबंदी से छोटे उद्यम तबाह हो चुके हैं. सांप्रदायिकता चरम पर है. एक जानवर के जान की कीमत आदमी की जान से ज्यादा है. किसान भूख से आत्महत्या कर रहे हैं, पर आपकी सरकार बुत बनवाने में लगी है….’

जनता का मौन आखिरकार भंग हुआ. इसी के साथ तानाशाह के हाथ बकरी की गर्दन को कसने लगे. मुंह माइक के करीब आ गया. आवाज महीन और डरावनी हो गई—

मित्रो! देश के विकास के लिए सहनशीलता और सकारात्मक सोच आवश्यक है. इस बकरी से सीखिए. इसकी तरह सकारात्मक बनिए. राष्ट्र आपसे बलिदान मांगता है. तो बोलो—‘जय….’

हिंद.’ मंच पर पीछे से आवाज आई. तानाशाह की गोद में पड़ी बकरी के गले से निकला— ‘मैं..….’

तानाशाह ने चौंककर बकरी की ओर देखा. फिर सामने नजर डाली. वहां सन्नाटा पसरा था. लोग पंडाल छोड़कर जा चुके थे.

भेड़ियों का स्वर्ग

एक समय था जब गाय, भैंस और बकरियों के बीच बड़ी एकता थी. वे साथसाथ रहतीं. साथसाथ चरतीं. साथसाथ पानी पीने जाती थीं. सभी खुश थीं. किसी को किसी का भय नहीं था. उनकी एकता बढ़ती जा रही थी. साथसाथ उनका कारवां भी विस्तार ले रहा था—

जैसेजैसे इनका संगठन बढ़ रहा है, हमारी चुनौती भी बढ़ती जा रही है.’ एक दिन एक भेड़िया दूसरे भेड़िया से बोला.

मैंने और लोमड़ी ने इनके बीच फूट डालने की बड़ी कोशिश की, परंतु नाकाम रहे हैं.’ पीछे खड़े सियार ने बात बनाई.

हूं….तब तो हमें ही कुछ करना होगा.’ भेड़िया बोला. उसके बाद उनकी गुप्त सभा हुई. चंद दिनों बाद जंगल में कुछ धर्मोपदेशकों ने प्रवेश किया. आते ही उन्होंने जंगल के एक सिरे पर गाय की मूर्ति बनाई. दूसरे पर भैंस की. फिर एक श्वेत वस्त्रधारी धर्मोपदेशक गायों के काफिले के बीच पहुंचा और कहने लगा —

भैंस गायों की बराबरी करें, यह अच्छी बात नहीं है. गायों के देवता को देखो, कितना सुंदर, सजीला और मनमोहक है. उसका कहना है कि यह पूरा जंगल केवल गायों के लिए है.’

भैंस गायों से कहीं ज्यादा शक्तिशाली हैं. उनके देवता के आगे गायों का देवता टिक नहीं सकता. एक दिन पूरे जंगल पर केवल भैंसों का अधिकार होगा.’ भैंसों के बीच पहुंचे श्याम वस्त्रधारी धर्मोपदेशक ने बताया. अपनीअपनी बात के समर्थन में दोनों ने अलगअलग कहानियां सुनाईं, जिन्हें उन्होंने इसी अवसर के लिए गढ़ा था.

कुछ दिनों के बाद गाय और भैंसों के काफिले बंट चुके थे. उनकी देखादेखी बकरियों ने भी अपना देवता गढ़ लिया था, जो देखने में एकदम बकरी जैसा था.

अपनी कामयाबी का जश्न मनाने के लिए भेड़ियों ने एक सभा बुलाई. सभा में भेड़ियों के सरदार ने नारा लगाया—धरती पर यदि कहीं स्वर्ग है तो….

बाकी भेड़ियों ने साथ दिया—यहीं है, यहीं है, यहीं है….

डर

गर्वीला तानाशाह दर्पण के सामने पहुंचा. वहां अपना ही प्रतिबिंब देख वह घबरा गया. देह पसीनापसीना हो गई.

डरो मत! मैं वही हूं जो तुम हो.’ दर्पण से आवाज आई.

बको मत….’ तानाशाह की चीख पूरे महल में गूंजने लगी. मंत्री, संत्री, नौकरचाकर दौड़ेदौड़े आए. दर्पण के ऊपर कपड़ा डाल दिया गया. तानाशाह का क्रोध तब भी कम न हुआ. इसपर उसका चहेता मंत्री उसके पास पहुंचा. दूर ही से लंबा सलाम ठोकने के बाद वह बोला—‘सिरीमान! दर्पण झूठा है. राज्य के सारे दर्पण झूठे हैं. आपको अपनी तस्वीर देखनी है तो मेरी आंखों में झांककर देखिए.’

हांहां, हमारी आंखों में झांककर देखिए….’ सारे दरबारी एक साथ बोल पड़े. तानाशाह ने बारीबारी से सबकी आंखों में झांका. वहां उसे वैसी ही तस्वीर नजर आई, जैसी वह देखना चाहता था. उसके बाद दर्पणों को नष्ट कर दिया गया. लेकिन तानाशाह ने दर्पण में जो देखा था, वह उसके मनमस्तिष्क पर हमेशाहमेशा के लिए अंकित हो चुका था. रात को सोतेजागते, वह तस्वीर तानाशाह के आंखों में अकसर उभर आती. इसी के साथ उसकी नींद उचट जाती. डर उसके सीने पर सवार हो जाता. वह जोर से चीखनेचिल्लाने लगता.

एक रात तानाशाह की आंखों से नींद गायब थी. सिर चकरा रहा था. उसने पानी मंगवाया. मुंह धोने ही जा रहा था कि लोटे में फिर वही छवि साकार हो गई—

मुझसे भागो मत! मैं तुम्हारा ही असली रूप हूं.’ आवाज आई. तानाशाह आपे से बाहर हो गया. उसने लोटा जमीन पर पटक दिया. सारा पानी जमीन पर फैल गया. लेकिन यह क्या, फर्श पर फैले पानी में वही छवि, पहले से कहीं ज्यादा विकृत रूप में नजर आ रही थी.

मैं तुम्हें छोड़ूंगा नहीं.’ कहते हुए तानाशाह ने बंदूक तान ली.

मुझे मारने के लिए तुम्हें खुद को भी मारना पड़ेगा.’ छवि की ओर से आवाज आई. मारे क्रोध के तानाशाह के दिमाग की शिराएँ सुन्न हो चुकी थीं. सिर चकरा रहा था. आवेश में अचानक गोली चली.

अब न तानाशाह था न ही उसकी छवि.

ओमप्रकाश कश्यप

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आधुनिक लोककथाएं

आधुनिक लोककथा —एक

गाय और भैंस को प्यास लगी. दोनों पानी पीने चल दीं. चलतेचलते गाय ने भैंस से कहा—‘मैं वर्षों तक न भी नहाऊं तब भी पवित्र कही जाऊँगी.

कोई क्या कहता है, से ज्यादा जरूरी अपनी असलियत पहचानना है.’ भैंस बोली. गाय की कुछ समझ में न आया, बोली—‘मैं समझी नहीं, तू चाहती क्या है?

आजादी!’

आजादी?’ गाय फिर उलझ गई. तालाब करीब आ चुका था. भैंस दौड़कर उसमें घुस गई और मजे से पानी पर तैरने लगी.

गाय तालाब के किनारेकिनारे चरने लगी.

आधुनिक लोककथा—दो

गाय और भैंस एक जगह बैठीं थीं. तभी कोई चिल्लाया—‘भागो! दंगाई आ रहे हैं.’

गायभैंस दोनों भाग छूटीं. दौड़तेदौड़ते दोनों दूर निकल आईं. मगर डर कम न हुआ. पीछे भागते कदमों की आवाजें और चीखपुकार बढती ही जा रही थीं. तभी दोनों को एक झोपड़ी दिखाई दी. भैंस रुक गई. उखड़ती सांसों पर काबू पाने की कोशिश करते हुए भैंस बोली

इधर वाले हों या उधर वाले. दंगों को भड़काने के लिए तेरा सहारा जरूर लेंगे. ऐसा कर तू उस झोपड़ी में छिप जा, उन्हें मैं देख लूंगी.’ गाय के जाने के बाद भैंस झोपड़ी के दरवाजे पर बैठ गए.

डरावनी आवाजें पास आकर रुकीं. फिर दूरजातेजाते शांत हो गई.

आधुनिक लोककथा तीन


एक बार एक गाय पर भेड़िया ने हमला कर दिया. बराबर में चर रही भैंस की नजर उसपर पड़ी. वह गुस्से से फुफकारती हुई वहां पहुंची और जोरदार टक्कर भेड़िया के मारी. भेड़िया दूर जा गिरा. उसके बाद से गाय उस भैंस के साथ रहने लगी. एक दिन की बात. दोनों पास बैठी थीं. मैदान के एक हिस्से में भैंसों का झुंड चर रहा था. तभी एक पुजारी वहां से गुजरा. गाय को देखकर उसने हाथ जोड़े, बोला—

मां, आपकी स्थान यहाँ नहीं वहां है.’ पुजारी ने गायों के झुंड की और इशारा किया.

मैं, अपनी जगह भलीभांति जानती हूँ. फिर इस भैंस ने तो मेरी प्राण रक्षा भी की है.’ उसके बाद गाय ने सारी घटना बता दी.

इसने जो किया वह तो इसका कर्तव्य था. आप अपना स्थान ग्रहण कीजिए.’ गाय चुपचाप वहां बैठी रही. पुजारी कुछ देर खड़ाखड़ा बुदबुदाता रहा. फिर चला गया. अगले दिन वह फिर आया. इस बार दो लाठीबाज भी थे. गाय को डराने की कोशिश की, परन्तु वह हिली तक नहीं—

तुम्हें कितना समझाया कि इससे दूर रहो. बताया कि तुम जिसे अहसान मान रही हो वह तो भैंस का कर्तव्य था. यही इस देश की परंपरा रही है. पुजारी हूँ, आपके ऊपर प्रहार नहीं कर सकता, परन्तु गुस्ताखी के लिए इस भैंस को तो मजा चखा ही सकता हूँ जिसने इस परम्परा भंग की है.’’ इसके बाद उसने अपने लठैतों को इशारा किया. वे भैंस की और बढे. लाठी उठाई, भैंस को मारें उससे पहले ही गाय खड़ी हो गई. आगे बढ़कर लठैत को जोरदार टक्कर मारी. फिर वह पुजारी की और मुड़ी. भयभीत पुजारी ने वहां से भाग आने में ही भलाई समझी.

आप पूछेंगे ऐसा कैसे हुआ. बात ऐसी है कि धर्म, खासकर इंसानों को बाँटने वाला धर्म केवल आदमी का होता है. जानवर तो केवल प्रेम की भाषा जानते हैं.

आधुनिक लोककथा/चार : घोर कलयुग

एक धर्मानुष्ठान निपटाकर, दूसरे के निमित्त जाता हुआ पुजारी गाय को देखकर ठिठका. वह कूड़े के ढेर पर झुकी अपनी जठराग्नि को दबाने की कोशिश कर रही थी—

हाय राम! घोर कलयुग!! घोर कलयुग!!! लोगों को गौमाता का केवल दूध चाहिए. उसके बाद वे जहां मन चाहे जाएं, जहां जी हो मुंह मारें….ऊपर से दोष देते हैं कि ईश्वर सुनता नहीं. अरे! जहां गौमाता की कद्र न होगी, वहां सुखशांति भला कैसे आ सकती है.’ आगे बढ़ता हुआ पुजारी बड़बड़ाया. वह दसबारह कदम ही बढ़ा होगा कि भीतर से आवाज आई—

मेरे पास यजमान का दिया भोजन है. कुछ फलफूल मिष्ठान्न भी है….क्यों न उन्हें गाय को खिला दूं. घर लौटने में तो अभी देर है.’ उसने वापस लौटना चाहा लेकिन प्रतिविचार काट के लिए तैयार था—

मेरे पास समय कहां है. आध घंटा पहले ही लेट हो चुका हूं. और देर हुई तो सगाई समारोह में जाने के लिए समय नहीं निकाल पाऊंगा.’ सोचतेसोचते वह पलटा और अपने लक्ष्य की ओर बढ़ गया.

दोपहर बाद का समय. पुजारी दक्षिण की पोटली उठाए घर की ओर बढ़ रहा था. जेब फूली हुई थी. कंधा झोले के बोझ से झुका जा रहा था. गाय उस समय भी कूड़े के ढेर पर मुंह मार रही थी. अचानक उसके दोनों हाथ एक साथ उठे. दाएं हाथ से पोटली और बाएं से झोले को संभालता हुआ वह बड़बड़ाया—‘हरे कृष्ण, हरे कृष्ण….घोर कलयुग घोर कलयुग!’

अब वह जल्दी से जल्दी, हो सके तो उड़कर, घर पहुँच जाना चाहता था.

आधुनिक लोककथा—पांच

सर्दी के दिन थे. बराबरबराबर चर रहीं गाय और भैंस देह गरमाने के लिए जोरआजमाइश करने लगीं. दोनों ने अपने सींग एकदूसरे के सींगों में फंसा दिए. उसके बाद कभी गाय भैंस को पीछे ठेल देती तो कभी भैंस गाय को ठेलती हुई मैदान के किनारे तक ले जाती.

सहसा एक दिशा में शोरशराबा मचने लगा. हाथों में लाठियां और डंडे उठाए भीड़ मैदान की ओर आती हुई दिखाई दी. उनकी मंशा भांप गाय और भैंस अलगअलग होकर चरने लगीं. अचानक भैंस को न जाने क्या सूझा कि वह वहां से भाग छूटी.

उसके बाद जब वे दोनों मिली तो गाय ने पूछा—‘मैंने उन्हें समझा दिया था कि वह केवल खेल था. पर तू अचानक भाग क्यों आई थी?’

मैं नहीं थी, इसलिए उन्होंने तेरी बात पर विश्वास कर लिया?’

मुझे तो वे धर्मात्मा लोग लगे?’ गाय बोली.

धर्मात्मा थे, इसीलिए भागना पड़ा. आम लोग होते तो दिलोदिमाग से काम लेते. भागने की जरूरत न पड़ती.’

मैं समझी नहीं….’ गाय भैंस की ओर देखने लगी.

समझ जाएगी, चल घर की ओर चलते हैं.’ इसके बाद दोनों गांव की ओर लौटने पड़ीं. जैसे ही गांव पहुंची, घरों से निकलकर महिलाएं गाय को रोटी खिलाने लगीं. भैंस की ओर किसी ने देखा तक नहीं. उनके जाने के बाद दोनों अकेली हुईं तो भैंस ने कहा—‘देखा, उनका धर्म कहता है, प्रत्येक जीव में एक ही परमात्मा का अंश है, लेकिन जब व्यवहार की बात आती है….’

बसबस, समझ गई.’ गाय ने बीच में टोका, ‘उनका धर्म जोड़ता नहीं, बांटता हैआग लगे ऐसे धर्म को. हम बिना धर्म के ही ठीक हैं.’

आधुनिक लोककथा—छह 

किसान ने गाय खरीदी. उसे लेकर घर जा ही रहा था कि रास्ते में पुजारी मिल गया—

कितने में खरीदी जिजमान?’

उधार लेकर आया हूं. मूल और ब्याज सालभर में चुकाना है. असली कीमत तो तभी पता चलेगी.’ किसान ने बताया.

अच्छा किया. खूंटे पर गाय बंधी रहे तो तीन लोक सुधारती है.’ पुजारी ने जाल फेंका.

तीन लोकों की कौन जाने, यही जन्म सुधर जाए, उतना काफी है.’

हरिहरि, दानधर्म चलता रहे जिजमान! भगवान सब ठीक करेगा.’

किसान कुछ न बोला. तभी रास्ते में मंदिर पड़ा. पुजारी उसी ओर मुड़ गया. किसान गाय लेकर आगे बढ़ा ही था कि पीछे से आवाज आई—‘बड़ी जल्दी में हो जिजमान!’

क्या बताऊं….वर्षों बाद घरवाली के बच्चा हुआ है. कमजोरी के कारण छातियों में दूध नहीं उतरा तो वैद्य जी ने गाय का दूध पिलाने की सलाह दी. सो जैसेतैसे इंतजाम करना पड़ा. बच्चा भूख से बिलबिला रहा होगा, इसलिए जल्दी में हूं.’

सो तो ठीक है, पर मंदिर के आगे से दुधारू गाय को प्रसाद चढ़ाए बगैर ले जाओगे तो क्या भगवान नाराज न होंगे….ठहरो!’ कहकर पुजारी भीतर गया, लौटा तो हाथ में बाल्टी थी. किसान कुछ समझे, उससे पहले ही वह बाल्टी लेकर दूध दुहने बैठ गया.’

किसान समझ नहीं पाया, यह पुजारी बड़ा व्यापारी या वह व्यापारी जिसने मोटा ब्याज तय करने के बाद गाय उधार दी थी.

आधुनिक लोककथा-सात/तानाशाह की खांसी

तानाशाह खांसा तो दरबारी चंगूमंगुओं के कान कान खड़े हो गए—

सर! प्रदूषण बहुत बढ़ गया है.’ एक ने कहा तो बाकी उसके स्वर में स्वर मिलाने लगे—

सारा प्रदूषण पड़ोसी राज्य में पराली जलाने की वजह से है. वहां अपनी ही सरकार है, लेकिन मुख्यमंत्री कुछ करते ही नहीं हैं.’

ऐसी सरकार को तुरंत बेदखल कर देना चाहिए.’ इस बीच तानाशाह की भृकुटि तनी तो दरबारी सकपका गए.

वातावरण में ठंड बढ़ती जा रही है. सूरज आलसी हो गया है. उसे बम से उड़ा देना चाहिए.’ थोड़ी देर बाद एक ने कहा.

सूरज से बाद में निपटा जाएगा. पहले सिरीमान की ठंड का इंतजाम हो….’

महल के पश्चिम में कुछ झोपड़ियां हैं, उनमें आग लगा दी जाए तो वातावरण में गरमी आ जाएगी.’ तानाशाह ने फिर आंखें तरेरीं. दरबारियों की सांस थमने लगी.

मूर्ख हो तुम….’ दरबारी चंगू ने दरबारी मंगू को डांटा, ‘आग लगने से धुआं होगा. धुआं हुआ तो प्रदूषण बढ़ेगा….।’

फिर तुम्हीं बताओ?’

लगता है किसी बीमारी की शामत आई है. वैद्यजी को बुलाकर लाते हैं.’ सुनते ही तानाशाह का चेहरा क्रोध से लाल हो गया. आंखों से खून बरसने लगा.

मैं वैद्यजी को बुलाकर लाता हूं.’ चंगू बोला.

रुको! मैं भी साथ चलता हूं.’ मंगू ने भी दूर हट जाने में ही भलाई समझी. वे जाने को मुड़े.

ठहरो!’ तानाशाह गुस्से से चिल्लाया. चंगूमंगू की कंपकंपी छूट गई.

हरामखोरो! इलाज तो बाद में देखा जाएगा. पहले यह बताओ, तुम खांसे क्यों नहीं थे?’ कुपित तानाशाह ने बंदूक तान ली.

चंगूमंगू खांसने लगे. तब तक खांसते रहे, जब तक बेहोश होकर गिर नहीं गए.

आधुनिक लोककथा-आठ/विडंबना

पृथ्वी पर ऊंचीऊंची मूर्तियां बनती देख दुनियाभर के भगवानों में चिंता व्याप गई. सारे भगवान दो हिस्सों में बंट गए. पहले वे जिनकी मूर्तियां लग चुकी थीं या लगने वाली थीं. दूसरे वे जिन्हें मूर्तियां नहीं लगने का मलाल था.

यह तो आस्था की बात है.’ एक भगवान जिसे अपनी विशालकाय मूर्ति लगने की खुशी थी, ने कहा.

तुम तो कहोगे ही.’ दूसरा भगवान जिसे मूर्ति न लगने का अफसोस था, बोला—‘यह तो सोचो. इतनी ऊंची मूर्ति के आगे कभी गए तो बौने दिखाई पड़ोगे. तब कौन तुम्हें भगवान मानेगा!’

मैं धरती पर न कभी गया, न ही जाऊंगा.’ मूर्तिवाला भगवान बोला.

तभी तो, उस मूर्ति में तुम कितने घोंचू लग रहे थे. जाकर अपने भक्तों को बताओ कि तुम वैसे बिलकुल नहीं हो, जैसे मूर्ति में दिखते हो.’

जिन भक्तों ने मूर्ति बनाई है. वे मुझे पूज रहे हैं—यही पर्याप्त है.’

जिसे वे पूज रहे हैं, वह कैसा है? क्या है? यह जानना भी तो जरूरी है.’

क्यों नाहक परेशान हो रहे हो. जाकर अपना काम देखो; और मुझे भी आराम करने दो.’ इतना कहकर मूर्तिवाला भगवान मुंह पर चादर डाल लेट गया. दूसरा भगवान खिन्न होकर वहां से चला आया.

अपनी मूर्ति लगवाने की जुगत में सोचतासोचता वह धरती पर पहुंच गया. वहां भव्य मंदिर देखकर उसकी आंखें चौंधियां गईं. मंदिर में दर्जनों मूर्तियां थीं. सिर्फ उसी की मूर्ति नदारद थी. पुजारी को थोड़ीसी फुर्सत मिली तो उसने कहा, ‘करोड़ों रुपये खर्च करके जिस भगवान की मूर्ति तुमने लगवाई है, वह उसकी असल सूरत से बिलकुल नहीं मिलती.’

मूर्ति का होना ही भक्तों के लिए पर्याप्त है…..पूजा का समय है, आगे बढ़ो.’ पुजारी बगैर गर्दन उठाए बोला.

यह तो श्रद्धालुओं के साथ धोखा हुआ. अगर वे सच जान गए तो?’

पुजारी हंसने लगा. भगवान की कुछ समझ में नहीं आया. पुजारी श्रद्धालुओं में व्यस्त हो चुका था. हारकर वह बाहर निकल आया. मंदिर परिसर में श्रद्धालु कतार लगाए खड़े थे. अनमन्यस्कसा भगवान आगे बढ़ ही रहा था कि एक पेड़ के नीचे अपनी मैलीकुचैली, पुरानी, उपेक्षित पड़ी मूर्ति देखकर ठिठक गया. किसी श्रद्धालु का उस ओर ध्यान न था. अचानक उसे न जाने क्या सूझी कि आसपास के वृक्षों से कुछ फूल और पत्तियां तोड़कर उस मूर्ति पर चढ़ा दिए. फिर हाथ जोड़कर अराधना करने लगा. तभी श्रद्धालुओं की कतार में से आवाज आई—‘उसे छोड़, इस कतार में लग जाओ. आजकल उसका ट्रेंड नहीं है.’

आवाज पर ध्यान दिए बिना उस भगवान ने मजेमजे में पूजा का नाटक किया और वहां से हट गया. थोड़ी दूर जाने के बाद उसने मुड़कर देखा, कतार में से कुछ श्रद्धालु निकलकर उसकी मूर्ति के आगे खड़े थे.

आखिर धरती पर आना बेकार नहीं हुआ.’ भगवान ने मन ही मन सोचा और मुस्कराते हुए आगे बढ़ गया.

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अछूत

ईश्वर पुजारी को रोज चढ़ावा समेटकर घर ले जाते हुए देखता. उसे आश्चर्य होता. दिनभर श्रद्धालुओं को त्याग और मोहममता से दूर रहने का उपदेश देने वाला पुजारी इतने सारे चढ़ावे का क्या करता होगा? एक दिन उसने टोक ही दिया‘तुम रोज इतना चढ़ावा घर ले जाते हो. अच्छा है, उसे मंदिर के आगे खड़े गरीबों में बांट दिया करो. कितनी उम्मीद लगाए रहते हैं.’

रहने दो प्रभु. तुम क्या जानो इस दुनिया में कितने झंझट हैं. एक दिन मंदिर से बाहर जाकर देखो तब पता चले.’

ईश्वर को बात लग गई. उसने पुजारी से एक दिन मंदिर बंद रखने का आग्रह किया, ‘कल तुम्हें खुद कुछ नहीं करना पड़ेगा. मैं खुद इंतजाम करूंगा.’ पुरोहित सोच में पड़ गया. परंतु यह सोचकर कि लोग ईश्वर को मंदिर से निकलते देखेंगे तो अगले दिन दो गुना चढ़ावा आएगा, वह एक दिन कपाट बंद रखने को राजी हो गया. अगले दिन ईश्वर ने कमंडल उठाया. मंदिर की देहरी पर पहुंचा था कि भीतर से आवाज आई. आवाज में आदेश था. ईश्वर के पांव जहां के तहां जम गए‘सुनो! सबसे पहले उत्तर दिशा में जाना. उस ओर सेठों की बस्ती है. जो भी नकदी मिले संभाल कर रखना. फिर पश्चिम दिशा में जाना. उस ओर क्षत्रियों की बस्ती है. वे दान देने में कंजूस होते हैं. उनसे धनधान्य जो भी मिले, मना मत करना. जब तक पूर्व दिशा में पहुंचोगे, गृहणियां भोजन की तैयारी कर चुकी होंगी. वहां से जो भी भोजन मिले, संभाल कर रख लेना.’ ईश्वर चलने को हुआ. पीछे से पुजारी ने फिर टोक दिया‘सुनो! दक्षिण दिशा की ओर जाओ तो किसी को छूना मत. नकदी मिले तो दूर से लेना. भोजन मिले तो हाथ मत लगाना.’

क्यों!’

वे लोग अछूत हैं . किसी ने छू भी लिया तो अपवित्र हो जाओगे.’ ईश्वर को गुस्सा आया. उसने कमंडल फ़ेंक दिया. उसके बाद मंदिर से बाहर निकला तो कभी नहीं लौटा.

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अच्छे दिन

चारों ओर बेचैनी थी. गर्म हवाएं उठ रही थीं. ऐसे में तानाशाह मंच पर चढ़ा. हवा में हाथ लहराता हुआ बोला—

भाइयो और बहनो! मैं कहता हूं….दिन है.’

भक्तगण चिल्लाए—‘दिन है.’

मैं कहता हूं….रात है.’

भक्तगण पूरे जोश के साथ चिल्लाए—‘रात है.’

हवा की बेचैनी बढ़ रही थी. बावजूद उसके तानाशाह का जोश कम न हुआ. हवा में हाथ को और ऊपर उठाकर उसने कहा—‘चांदनी खिली है. आसमान में तारे झिलमिला रहे हैं.’

पूनम की रात है….आसमान में तारे झिलमिला रहे हैं.’ भक्तों ने साथ दिया.

अच्छे दिन आ गए….’ भक्तगण तानाशाह के साथ थे. दुगुने जोश से चिल्लाए—

अच्छे दिन आ…’ यही वह बात थी, जिसपर हवा आपा खो बैठी. अनजान दिशा से तेज झंझावात उमड़ा और तानाशाह के तंबू को ले उड़ा.

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समाधान

तानाशाह ने पुजारी को बुलाया—‘राज्य में सिर्फ हमारा दिमाग चलना चाहिए. हमें ज्यादा सोचने वाले लोग नापसंद हैं.’

एकदो हो तो ठीक, पूरी जनता के दिमाग में खलबली मची है सर!’ पुजारी बोला.

तब आप कुछ करते क्यों नहीं?’

मुझ अकेले से कुछ नहीं होगा.’

फिर….’ इसपर पुजारी ने तानाशाह के कान में कुछ कहा. तानाशाह ने पूंजीपति को बुलवाया. पूंजीपति का बाजार पर दबदबा था. अगले ही दिन से बाजार से चीजें गायब होने लगीं. बाजार में जरूरत की चीजों की किल्लत बढ़ी तो लोगपरेशान होने लगे. रोजमर्रा की चीजों के लिए एकदूसरे से झगड़ने लगे. एकदूसरे पर अविश्वास बढ़ गया. समाज में आपाधापी, मारकाट और लूटखसोट बढ़ गई. मौका देख पुजारी सामने आया. लोगों को संबोधित कर बोला—

हमारी धरती सोना उगल रही है. कारखाने रातदिन चल रहे हैं. फिर भी लोग परेशान हैं, जरा सोचिए, क्यों?’

आप ही बताइए पुजारी जी….’

ईश्वर नाराज है. उसे मनाइए, सब ठीक हो जाएगा.’

जैसा सोचा था, वही हुआ. मंदिरों के आगे कतार बढ़ गई. कीर्तन मंडलियां संकट निवारण में जुट गईं.

तानाशाह खुहै. पुजारी और पूंजीपति दोनों मस्त हैं.

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राजा बदरंगा है

तानाशाह को नएनए वस्त्रों का शौक था. दिन में चारचार पोशाकें बदलता. एक दिन की बात. कोई भी पोशाक उसे भा नहीं रही थी. तुरंत दर्जी को तलब किया गया.

हमारे लिए ऐसी पोशाक बनाई जाए, जैसी दुनिया के किसी बादशाह ने, कभी न पहनी हो.’ तानाशाह ने दर्जी से कहा. दर्जी बराबर में रखे हंटर को देख पसीनापसीना था. हिम्मत बटोर जैसेतैसे बोला

हुजूर, आप तो देशविदेश खूब घूमते हैं. कोई ऐसा देश नहीं, जहां आपके चरण न पड़े हों. वहां जो भी अच्छा लगा हो, बता दीजिए. ठीक वैसी ही पोशाक मैं आपके लिए सिल दूंगा.’

तानाशाह को जहां, जिस देश में, जो पोशाक पसंद आई थी, सब दर्जी को बता दीं. उन सबको मिलाकर दर्जी ने जो पोशाक तैयार की, तानाशाह ने उसे पहनकर एक ‘सेल्फी’ ली और सोशल मीडिया पर डाल दी.

पहली प्रतिक्रिया शायद किसी बच्चे की थी. लिखा था‘राजा बदरंगा है.’

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तानाशाह—दो

बड़े तानाशाह के संरक्षण में छोटा तानाशाह पनपा. मौका देख उसने भी हंटर फटकारा—‘सूबे में वही होगा, जो मैं चाहूंगा. जो आदेश का उल्लंघन करेगा, उसे राष्ट्रद्रोह की सजा मिलेगी.’ हंटर की आवाज जहां तक गई, लोग सहम गए. छोटा तानाशाह खुश हुआ. उसने फौरन आदेश निकाला—‘गधा इस देश का राष्ट्रीय पशु है, उसे जो गधा कहेगा. उसे कठोर दंड दिया जाएगा.’
आदेश के बाद से सूबे में जितने भी गधे थे सब ‘गदर्भराज’ कहलाने लगे. उन्हें बांधकर रखने पर पाबंदी लगा दी गई. कुछ गधे तो फूल कर कुप्पा हो गए. वे मौके-बेमौके जहां-तहां दुलत्ती मारने लगे. पूरे सूबे में अफरा-तफरी मच गई. कुछ दिनों के बाद छोटे तानाशाह ने एक भाषण में कहा—‘पिछली सरकारें, इतने वर्षों में कुछ नहीं कर पाई थीं. हमनें आने के साथ ही ‘गधा’ को ‘गदर्भराज’ बना दिया. इसे कहते हैं—‘सबका साथ—सबका विकास.’
भक्त-गण जय-जयकार करने लगे. ठीक उसी समय गधों का एक रेला आया. लोग उनके सम्मान में खड़े हो गए. अकस्मात एक गधा मंच के पीछे से आया और छोटे तानाशाह को एक दुलत्ती जड़ दी. छोटा तानाशाह जमीन बुहारने लगा.

‘इसे समझा देना. हर गधा, ‘गधा’ नहीं होता. कहकर वह वहां से नौ-दो ग्यारह हो गया.

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मंत्रबल

बैठे-ठाले

संघ के सिद्धपुरुष का मंत्र द्वारा चीन के छक्के छुड़ाने का बयान सुन, एक उत्साही पत्रकार उनके दरबार में जा धमका—

सर! यदि मंत्रजाप द्वारा दुश्मन की कमर तोड़ी जा सकती है तो परमाणु बम बनाने के लिए अरबों रुपये खर्च करने की क्या आवश्यकता है?’

हट बुड़बक!’ सिद्धपुरुष का चेहरा तमतमा गया. आंखें लाल पड़ गईं, ‘कलयुगी पत्रकार, सच को कभी समझ ही नहीं सकते. नारदजी होते तो अभी दूध का दूध, पानी का पानी कर देते.’

पत्रकार सहम गया. दैवी प्रेरणा से धीरेधीरे सिद्ध पुरुष का कोप शांत हुआ, बोले—

सुनो! एक बार की बात है. हनुमानजी गंधमादन पर्वत पर विश्राम कर रहे थे. तब संत पुरुषों का रेला उनके पास पहुंचकर विनती करने लगा—‘महाराज, देश के उत्तरपश्चिम में असुर दुबारा सिर उठाने लगे हैं. ऋषिगण परेशान हैं. असुर यज्ञादि को खंडित कर राम कार्य में बाधा पहुंचाते हैं.’

रामकाज में बाधा!’ सुनते ही हनुमानजी लालभभूका हो गए. वे बुढ़ा भले गए थे. लेकिन बल और तेज ज्यों का त्यों था. सो उन्होंने गदा उठाई और उत्तरपश्चिम दिशा में चला दी. गदा गिरते ही धरती थर्रा गई. बबंडर आसमान तक छा गया. जोर का धमाका हुआ….’

कहतेकहते सिद्धपुरुष कुछ पल रुके. फिर बोले—‘कुछ समझे या कंपलीटली लालभुझक्कड़ टाइप पत्रकार हो. चलो हम ही बताए देते हैं—जहां वह गदा जाकर गिरी वह स्थान था—पोखरण और तारीख थी, 18 मई 1974.