फारवर्ड प्रेस में महिषासुर, मक्खलि गोशाल, कौत्स, अजित केशकंबलि सहित अन्य कई बहुजन नायकों के चित्र बनाकर उन्हें जनसंस्कृति का हिस्सा बना देने वाले डॉ. लाल रत्नाकर अंतरराष्ट्रीय स्तर के प्रतिष्ठित, प्रतिबद्ध कलाकार हैं. अपने चित्रों में उन्होंने भारत के ग्रामीण जीवन को हमारे सामने रखा है. पिछले दिनों उनके आवास पर लंबी चर्चा हुई. देश की राजनीति से लेकर सामाजिक–सांस्कृतिक मुद्दों पर वे बड़ी बेबाकी से बोले. यह आलेख उसी बातचीत का शब्दांतरण है.
अपने चित्रों के माध्यम से उत्तर भारत के गांव, गली, घर–परिवेश, हल–बैल, खेत–पगडंडी, पशु–पक्षी, तालाब–पोखर, यहां तक कि दरवाजों और चौखटों को जीवंत कर देने वाले डॉ. लाल रत्नाकर के बारे में मेरा अनुमान था कि उनका बचपन बहुत समृद्ध रहा होगा. समृद्ध इस लिहाज से कि वे सब स्मृतियां जिन्हें हम सामान्य कहकर भुला देते हैं या देखकर भी अनदेखा कर जाते हैं, उनके मन–मस्तिष्क में मोती–माणिक की तरह टकी होंगी. सो मैंने सबसे पहले उनसे अपने बारे में बताने का आग्रह किया. मेरा अनुमान सही निकला. उन्होंने बोलना आरंभ किया तो लगा, उनके साथ–साथ मैं भी स्मृति–यात्रा पर हूं. वे बड़ी सहजता से बताते चले गए. बिना किसी बनावट और बगैर किसी रुकावट के. जितने समय तक हम दोनों साथ रहे, मैं उनकी जीवन–यात्रा के प्रवाह में डूबता–उतराता रहा.
संपन्न परिवार में जन्मे डॉ. रत्नाकर के पिता डॉक्टर थे, चाचा लेक्चरर. गांव और ननिहाल दोनों जगह अच्छी–खासी जमींदारी थी. जिन दिनों उन्होंने होश संभाला डॉ. आंबेडकर द्वारा देश के करोड़ों लोगों की आंखों में रोपा गया समता–आधारित समाज का सपना परवान चढ़ने लगा था. किंतु आजादी के वर्षों बाद भी देश के महत्त्वपूर्ण पदों एवं संसाधनों पर अल्पसंख्यक अभिजन का अधिकार देख निराशा बढ़ी थी. स्वाधीनता संग्राम में आमजन जिस उम्मीद के साथ बढ़–चढ़कर हिस्सेदारी की और कुर्बानियां दी थीं, वे फीकी पड़ने लगी थीं. दलित और पिछड़े मानने लगे थे कि केवल संवैधानिक संस्थाओं से उनका भला होने वाला नहीं है. इसलिए वे खुद को अगली लड़ाई के लिए संगठित करने में लगे थे. पूर्वी उत्तरप्रदेश और बिहार सामाजिक–राजनीतिक चेतना के उभार का केंद्र बने थे. जाति जो अभी तक उनके शोषण का कारण थी, वह संगठन की मुख्य प्रेरणा बनी थी. आजकल जैसे संघ और भाजपा के नेता अस्मितावादी आंदोलनों को जातिवादी कहकर उपेक्षित–अपमानित करने की कोशिश करते हैं, तब यह काम कांग्रेस किया करती थी. ग्रामीण जीवन में जाति और समाज परस्पर पर्याय थे. अतएव जाति–आधारित संगठनों के पीछे मुख्य विचार यही था कि संगठन की शक्ति लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी कारगर सिद्ध होगी. लोग सामूहिक हितों के लिए एकजुट होकर संघर्ष करना सीखेंगे. जैसे–जैसे लोकतांत्रिक चेतना का असर बढ़ेगा, जाति स्वतः अप्रासंगिक होती जाएगी. इस संकल्पना के मद्देनजर बिहार में त्रिवेणी संघ की नींव 1933 में ही पड़ चुकी थी. लेकिन पिछड़े वर्गों में राजनीतिक चेतना के अभाव तथा दुराग्रहों के कारण वह प्रयोग अपेक्षित सफलता प्राप्त न कर सका था. जो कांग्रेस त्रिवेणी संघ के नेताओं को जातिवादी मानसिकता से ग्रस्त बता रही थी, उसी ने 1935 में ‘बैकवार्ड कास्ट फेडरेशन’ की स्थापना कर खुद को पिछड़ी जातियों का एकमात्र हितैषी दर्शाने की कोशिश की थी. उन दिनों नेतृत्व की बागडोर राममनोहर लोहिया के हाथों में थी. जो न केवल प्रखर वक्ता थे, बल्कि विचारों को लेकर भी पूरी तरह स्पष्ट थे. लोकतंत्र में यदि सभी के वोट का मूल्य बराबर है तो सत्ता–प्रतिनिधित्व भी उसी अनुपात में मिलना चाहिए, इसे लक्ष्य मानकर गढ़ा गया उनका नारा, ‘पिछड़ा पावें सौ में साठ’ पिछड़ों के संगठन की प्रेरणा बना था. यही परिवेश किशोर लाल रत्नाकर के मानस–निर्माण का था. तो भी बड़े लोगों की बड़ी–बड़ी बातें उन दिनों तक उनकी समझ से बाहर थीं. बस यह महसूस होता था कि कुछ महत्त्वपूर्ण घट रहा है. परिवर्तन यज्ञ में भागीदारी का अस्पष्ट–सा संकल्प भी मन में उभरने लगा था.
पढ़ाई की शुरुआत गांव की पाठशाला से हुई. हाईस्कूल शंभुगंज से विज्ञान विषयों के साथ पास किया. उन दिनों कला के क्षेत्र में वही विद्यार्थी जाते थे जो पढ़ाई में पिछड़े हुए हों. परंतु रत्नाकर का मन तो कला में डूबा हुआ था. हाथ में खड़िया, गेरू, कोयला कुछ भी पड़ जाए, फिर सामने दीवार हो या जमीन, उसे कैनवास बनते देर नही लगती थी. लोगों के घर कच्चे थे. गरीबी भी थी, लेकिन मन से वे सब समृद्ध थे. तीज–त्योहार, मेले–उत्सवों में आंतरिक खुशी फूट–फूट पड़ती. सामूहिक जीवन में अभाव भी उत्सव बन जाते. रत्नाकर का कलाकार मन उनमें अंतर्निहित सौंदर्य को पहचानने लगा था. गांव का कुआं, हल–बैल, पत्थर के कोल्हू की दीवारें, असवारी, कुम्हार द्वारा बर्तनों पर की गई नक्काशी, सुघड़ औरतों द्वारा निर्मित बंदनवार, रंगोलियां और भित्ति चित्र उन्हें आकर्षित ही नहीं, सृजन के लिए लालायित भी करते थे. गांव की लिपी–पुती दीवारों पर गेरू या कोयले के टुकड़े से अपनी कल्पना को उकेरकर उन्हें जो आनंद मिलता, उसके आगे कैनवास पर काम करने का सुख कहीं फीका था. जाहिर है, अभिव्यक्ति अपना माध्यम चुन रही थी. उस समय तक भविष्य की रूपरेखा तय नहीं थी. न ही होश था कि आड़ी–तिरछी रेखाएं खींचकर, चित्र बनाकर भी सम्मानजनक जीवन जिया जा सकता है. गांव–देहात में चित्रकारी का काम मुख्यतः स्त्रियों के जिम्मे था. उनके लिए वह कला कम, परंपरा और संस्कृति का मसला अधिक था. उनसे कुछ आमदनी भी हो सकती है, ऐसा विचार दूर तक नहीं था.
माता–पिता चाहते थे कि वे विज्ञान के क्षेत्र में नाम कमाए. उनकी इच्छा का मान रखने के लिए इंटर की पढ़ाई के लिए बारह–तेरह किलोमीटर दूर जौनपुर जाना पड़ा. कुछ दिन साइकिल द्वारा स्कूल आना–जाना चलता रहा. मगर रोज–रोज की यात्रा बहुत थकाऊ और बोरियत–भरी थी. सो कुछ ही दिनों बाद विज्ञान का मोह छोड़ उन्होंने वापस शंभुगंज में दाखिला ले लिया. वहां उन्होंने कला विषय को चुना. घर पर जो वातावरण उन्हें मिला वह रोज नए सपने देखने का था. कला विषय में खुद को अभिव्यक्त करने की अंतहीन संभावनाएं थीं. धीरे–धीरे लगने लगा कि यही वह विषय है कि जिसमें अपने और अपनों के सपनों की फसल उगाई जा सकती है. इंटर के बाद उन्होंने गोरखपुर विश्वविद्यालय से बीए, फिर कानपुर विश्वविद्यालय से एमए तक की पढ़ाई की. तब तक विषय की गहराई का अंदाजा हो चुका था. मन में एक साध बनारस विश्वविद्यालय में पढ़ने की भी थी. सो आगे शोध के क्षेत्र में काम करने के लिए वे कला संकाय के विभागाध्यक्ष डॉ. आनंदकृष्ण से मिले. उन्होंने मदद का आश्वासन दिया. लेकिन विषय क्या हो, इस सोच में कई दिन बीत गए.
उधर रत्नाकर को एक–एक दिन खटक रहा था. इसी उधेड़–बुन में वे एक दिन डॉ. आनंदकृष्ण के घर जा धमके. उस समय तक डॉ. रायकृष्ण दास जीवित थे. वे लोककलाओं की उपेक्षा से बहुत आहत रहते थे. बातचीत के दौरान उन्होंने ही प्रोफेसर आनंदकृष्ण को लोककला के क्षेत्र में शोध कराने का सुझाव दिया. प्रोफेसर आनंदकृष्ण ने उनसे आसपास बिखरी लोककलाओं को लेकर कुछ सामग्री तैयार करने को कहा. इस दृष्टि से वह लोक खूब समृद्ध था. रत्नाकर ने यहां–वहां बिखरे कला–तत्वों के चित्र बनाने आरंभ कर दिए. चौखटों, दीवारों पर होने वाली नक्काशी, रंगोली, पनघट, तालाब, कोल्हू, मिट्टी के बर्तन, असवारी वगैरह. उस समय तक लोककला के नाम लोग केवल ‘मधुबनी’ को जानते थे. पूर्वी उत्तर–प्रदेश के गांव भी लोक कला का खजाना हैं, इसका अंदाजा किसी को न था. अगली बार वे आनंदकृष्ण जी से मिले तो उन्हें दिखाने के लिए भरपूर सामग्री थी. प्रोफेसर आनंदकृष्ण उनके चित्रों को देख अचंभित रह गए, ‘अरे वाह! इतना कुछ. यह तो खजाना है….खजाना, अद्भुत! लेकिन तुम्हें अभी और आगे जाना है. मैं तुम्हारा प्रस्ताव आने वाली बैठक में पेश करूंगा.’ उस मुलाकात के बाद रत्नाकर को ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा. विश्वविद्यालय ने ‘पूर्वी उत्तरप्रदेश की लोककलाएं’ विषय पर शोध के लिए मुहर लगा दी. शोध क्षेत्र नया था. संदर्भ ग्रंथों का भी अभाव था. फिर भी वे खुश थे. अब वे भी इस समाज को एक कलाकार और अन्वेषक की दृष्टि से देख सकेंगे. बुद्धिजीवी जिस सांस्कृतिक चेतना की बात करते हैं, उसके एक रूप को पहचानने में उनका भी योगदान होगा. अथक परिश्रम, मौलिक सोच और लग्न से अंततः शोधकार्य पूरा हुआ. डिग्री के साथ नौकरी भी उन्हें मिल गई. अब दिनोंदिन समृद्ध होता विशाल कार्यक्षेत्र उनके समक्ष था.
डॉ. लाल रत्नाकर ग्रामीण पृष्ठभूमि के चितेरे हैं. उनका अनुभव संसार पूर्वी उत्तर प्रदेश में समृद्ध हुआ है. इसका प्रभाव उनके चित्रों पर साफ दिखाई पड़ता है. उनके चित्रों में खेत, खलिहान, पशु–पक्षी, हल–बैल, पेड़, सरिता, तालाब अपनी संपूर्ण सौंदर्य चेतना के साथ उपस्थित हैं. स्त्री और उसकी अस्मिता को लेकर अन्य चित्रकारों ने भी काम किया है, लेकिन ग्रामीण स्त्री को जिस समग्रता के साथ डॉ. लाल रत्नाकर ने अपने चित्रों में उकेरा है, भारतीय कला–जगत में उसके बहुत विरल उदाहरण हैं. उनके अनुभव संसार के बारे में जानना चाहो तो उन्हें कुछ छिपाना नहीं पड़ता. झट से बताने लगते हैं, ‘मेरी कला का उत्स मेरा अपना अनुभव संसार है.’ फिर जीवन और कला के अटूट संबंध को व्यक्त करते हुए कह उठते हैं, ‘जीवनानुभवों को कला में ढाल देना आसान नहीं होता, परंतु जीवन और कला के बीच निरंतर आवाजाही से कुछ खुरदरापन स्वतः मिटता चला जाता है. जीवन से साक्षात्कार कराने की खातिर कला समन्वय–सेतु का काम करने लगती है.’
वान गॉग का कहना था कि महान कृतियां छोटी–छोटी वस्तुओं को साथ लाने से बनती हैं. गॉग ने अनियोजित मशीनीकरण की त्रासदी को अपनी आंखों से देखा था. उनीसवीं शताब्दी के उस महान चित्रकार ने ‘आत्म’ की खोज हेतु पहले पादरी का चोला पहना. चर्च का माहौल उस विद्रोही चित्रकार को जमा नहीं तो पैटिंग पर उतर आया. कला उसके लिए धर्म का विकल्प थी. जीवन में साढ़े आठ सौ चित्र बनाने वाला वह चित्रकार आजीवन गरीबी से जूझता रहा. लेकिन कभी किसी ईश्वर के आगे गिड़गिड़ाया नहीं, न ही कोई धार्मिक चित्र बनाया. उसके चित्रों में खान मजदूर, जूते, प्याज जैसे अतिसाधारण पात्र और वस्तुएं हैं. डॉ. रत्नाकर भी अपने चित्रों के जरिये ‘आत्म’ की खोज के लिए प्रयत्नरत रहते हैं और इसके लिए उन छोटी से छोटी चीजों को चित्रों में स्थान देते हैं, जिनके बारे में हम जैसे साधारण लोग मानते हैं कि वहां कला हो ही नहीं सकती. उनके चित्र आजादी के बाद से हमारे संघर्षशील देहात में उभरती आत्मचेतना का दर्पण हैं. उनमें किसान, मजदूर, घास छीलती, गाय–भैंस दुहती, चक्की–चूल्हा चलाती वे स्त्रियां हैं, जिनके सपने धर्म, परंपरा और संस्कृति की बलि चढ़ जाते हैं. अपने कई चित्रों में उन्होंने कृष्ण को विविध रूपों में पेश किया है. लेकिन उनके कृष्ण देवता न होकर श्रम–संस्कृति से उभरे लोकनायक हैं. वे गाय चरा सकते हैं, दूध दुह सकते हैं और अपनों को संकट से बचाने के लिए ‘गोवर्धन’ जैसी विकट जिम्मेदारी भी उठा सकते हैं.
कला को लोग कल्पना से जोड़ते हैं. कहा जाता है कि हर कलाकार की अपनी दुनिया होती है, जिसमें वह अपने पात्रों के साथ जीता है. वे पात्र मूर्त्त भी हो सकते हैं, अमूर्त्त भी. कलाकार के निजी संसार में दूसरों का दखल संभव नहीं होता. इसलिए चलताऊ भाषा में उसे किसी और दुनिया का जीव मान लिया जाता है. उस समय हम भूल जाते हैं कि कलाकार होने की पहली शर्त उसकी संवेदनशीलता है. कल्पना आसमान से उतर सकती है. वह किसी और दुनिया या समाज के बारे में भी हो सकती है. संवेदनाओं के लिए अपने परिवेश से अंतरंगता जरूरी है. प्रत्येक कलाकार पहले अपने परिवेश से अंतरंग होता है. उसमें अंतर्निहित सौंदर्य को आत्मसात् करता है. इसके साथ–साथ उसमें जो असंतोष और अधूरापन है, उसे भी गहराई के साथ अनुभूत करता है. फिर अपनी सृजनात्मकता तथा परिवेश में व्याप्त सौंदर्य, असंतोष, अधूरापन और सुख–दुख की घनीभूत स्मृतियों के बल पर वह अपने लिए समानांतर लोक की रचना कर लेता है. वह कलाकार की अपनी दुनिया होती है. उसके लिए काल्पनिक और यथार्थ की दुनिया में अधिक अंतर नहीं होता. उसका ‘आत्म’ दोनों के बीच विचरण करता रहता है. इस यात्रा एवं तज्जनित उद्वेगों से प्रेरित हो वह जो रचता है, वह काल्पनिक होकर भी यथार्थ के करीब होता है. गॉग के शब्दों में यह चित्र का सपना देखने, फिर सपने को कैनवास पर उतारने की कला है.
डॉ. रत्नाकर के कृतित्व को लेकर बात हो और स्त्री पर चर्चा रह जाए तो बात अधूरी मानी जाएगी. उनके चित्रों में ‘आधी आबादी’ आधे से अधिक स्पेस घेरती है. इसकी प्रेरणा उन्हें अपने घर, गांव से ही मिली थी. दादा के दिवंगत हो जाने के बाद खेती संभालने की जिम्मेदारी दादी के कंधों पर थी. जिसे वह कर्मठ वृद्धा बिना किसी दैन्य के, कुशलतापूर्वक संभालती थीं. इसलिए उनके चित्रों को हम ग्रामीण स्त्री के सपनों और स्वेद–बिंदुओं के प्रति एक कलाकार की विनम्र श्रद्धांजलि के रूप में भी देख सकते हैं. आप उनके चित्रों में काम करतीं, मंत्रणा करतीं, पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष करतीं, नित–नए सपने बुनती स्त्रियों से साक्षात कर सकते हैं. ग्रामीण स्त्री के जितने विविध रूप और जीवन–संघर्ष हैं, सब उनके चित्रों में समाए हुए हैं. लेकिन उनकी स्त्री अबला नहीं है. बल्कि कर्मठ, दृढ़–निश्चयी, गठीले बदन वाली, सहज एवं प्राकृतिक रूप–सौंदर्य की स्वामिनी है. वह खेतिहर है, अवश्यकता पड़ने पर मजदूरी भी कर लेती है. उसका जीवन रागानुराग से भरपूर है. उसमें उत्साह है और स्वाभिमान भी, जिसे उसने अपने परिश्रम से अर्जित किया है. कमेरी होने के साथ–साथ उसकी अपनी संवेदनाएं हैं. मन में गुनगुनाहट है. गीत–संगीत, नृत्य और लय है. वे ग्रामीण स्त्री के सहज–सुलभ व्यवहार को निरा देहाती मानकर उपेक्षित नहीं करते. बल्कि ठेठ देहातीपन के भीतर जो सुंदर–सलोना मनस् है, अपनों के प्रति समर्पण की उत्कंठा है—उसे चित्रों के जरिये सामने ले आते हैं. यह हुनर विरलों के पास होता है. इस क्षेत्र में डॉ. रत्नाकर की प्रवीणता असंद्धिग्ध है.
आधुनिक कला में देह को अकसर बाजार से जोड़कर देखा जाता है. यहां डॉ. रत्नाकर के चित्र एकदम अलग हैं. बाजार गांव–देहात में भी होते हैं. लेकिन वे लोगों की जरूरत की चीजें उपलब्ध कराने के जरूरी ठिकाने कहलाते हैं. अपने मुनाफे के लिए वे जरूरतें बनाते नहीं हैं. इस तरह कुछेक अपवादों को छोड़कर गांवों में बाजारवाद की भावना से दूर बाजार होता है, ऐसे ही डॉ. रत्नाकर के स्त्री–संबंधी चित्रों में स्त्री–देह तो है, मगर किसी भी प्रकार के देहवाद से परे है. राजा रविवर्मा ने भी गठीले और भरे देह वाली स्त्रियों के चरित्र बनाए हैं. लेकिन उनमें से अधिकांश चित्र या तो अभिजन स्त्रियों के हैं या फिर उन देवियां के, जिनका श्रम से कोई वास्ता नहीं रहता. वे उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं, जो परजीवी है, दूसरों के श्रम–कौशल पर जीवन जीता है. कुल मिलाकर रविवर्मा के चित्रों में वे स्त्रियां हैं, जिन्हें बाजार ने बनाया है. चाहे वह बाजार उपभोक्ता वस्तुओं का हो अथवा धर्म का. डॉ. रत्नाकर की स्त्रियां बाजारवाद की छाया से बहुत दूर हैं. उनके लिए देह जीवन–समर में जूझने का माध्यम है. इसलिए वहां दुर्बल छरहरी काया में भी अंतर्निहित सौंदर्य है. इस बारे में उनका कहना है, ‘मेरे चित्रों के पात्र अपनी देह का अर्थ ही नही समझते. उनके पास देह तो है, परंतु देह और देहवाद का अंतर वे समझ नहीं पाते.’ हम जानते हैं, देह और देहवाद के बीच वही मूलभूत अंतर है जो असली और नकली के बीच होता है. बकौल डॉ. रत्नाकर, ‘बाजारीकरण देह में लोच, लावण्य और आलंकारिकता तो पैदा करता है, मगर उससे स्त्री की अपनी आत्मा गायब हो जाती है. वह निरी देह बनकर रह जाती है. मैंने अन्य चित्रकारों द्वारा चित्रित आदिवासी भी देखे हैं. उनके चित्रों के आदिवासी मुझे किसी स्वर्गलोक के बाशिंदे नजर आते हैं. ऐसे लोग जो हर घड़ी बिना किसी फिक्र के आनंदोत्सव में मग्न रहते हैं. उसके अलावा मानो कोई काम उन्हें आता नहीं है.’ वे आगे बताते हैं, ‘मुझे यह कहने में जरा भी अफसोस नहीं है कि मेरे बनाए गए चित्रों के पात्र सुकोमल स्त्री तथा बलिष्ठ पुरुष का प्रतिनिधित्व करते हैं, उन स्त्री–पुरुषों का भी प्रतिनिधित्व करते हैं, जिन्होंने अपना रूप–सौंदर्य खेत–खलिहानों के धूप–ताप में निखारा है. मुझे उस यथार्थ के सृजन में सुकून प्राप्त होता है, जो चिंतित अथवा बोझिल है. उन स्त्रियों की वेदना उकेरने में भी मुझे शांति की अनुभूति होती है, जिनके पुरुष अपना सारा बल और तेज, रोग, व्याधि, कर्ज, जमींदारों के अत्याचार और समय के हवाले कर चुके हैं.’ उनके द्वारा गढ़ गए स्त्री–चरित्रों में प्राकृतिक रूप–वैभव है, इसके बावजूद वे किसी भी प्रकार के नायकवाद से मुक्त हैं. वे न तो लक्ष्मीबाई जैसी ‘मर्दानी’ हैं, न ‘राधा’ सरीखी प्रेमिका, न ही इंदिरा गांधी जैसी कुशल राजनीतिज्ञ. वे खेतों–खलिहानों में पुरुषों के साथ हाथ बंटाने वाली, आवश्यकता पड़ने पर स्वयं सारी जिम्मेदारी ओढ़ लेने वाली कमेरियां हैं. जो अपने क्षेत्र में बड़े से बड़े नायक को टककर दे सकती हैं.’ और जब डॉ. रत्नाकर यह कहते हैं तो वे किसी एक शहर या प्रदेश के कलाकार नहीं, बल्कि राष्ट्रीय कलाधर्मी होने का गौरव प्राप्त कर लेते हैं.
अपने चित्रों के लिए वे जिन रंगों का चुनाव करते हैं, वह आकस्मिक नहीं होता. बल्कि उसके पीछे पूरी सामाजिकता और जीवन रहस्य छिपे होते हैं. उनके स्त्री–चरित्र रंगों के चयन को लेकर बहुत सजग और संवेदनशील होते हैं. वे उन्हीं रंगों का चयन करते हैं, जो उनके जीवन–उत्सव के लिए स्फूर्त्तिदायक हों. उनके अनुसार लाल, पीला, नीला और थोड़ा आगे बढ़ीं तो हरा, बैंगनी, नारंगी जैसे आधारभूत रंग ग्रामीण स्त्री की चेतना का वास्तविक हिस्सा होते हैं. उत्सव और विभिन्न पर्वों, मेले–त्योहारों पर ग्रामीण स्त्री इन रंगों से दूर रह ही नहीं पाती. प्रतिकूल हालात में इन रंगों के अतिरिक्त ग्रामीण स्त्री के जीवन में, ‘जो रंग दिखाई देते हैं, वह सीधे–सीधे कुछ अलग ही संदेश संप्रेषित करते हैं. उन रंगों में प्रमुख हैं—काला और सफेद, जिनके अपने अलग ही पारंपरिक संदर्भ हैं.’
हम जानते हैं कि विज्ञान की दृष्टि में ‘काला’ और ‘सफेद’ आधारभूत रंग न होकर स्थितियां हैं. पहले में सारे रंग एकाएक गायब हो जाते हैं; और दूसरी में इतने गड्मड्ड कि अपनी पहचान ही खो बैठते हैं. भारतीय स्त्री, खासतौर पर हिंदू स्त्री जीवन के साथ जुड़कर ये रंग किसी न किसी त्रासदी की ओर इशारा करते हैं. बहरहाल, रंगों के साथ स्त्री का सहज जुडाव उसे प्रकृति और सत्य के समीप रखता है. डॉ. रत्नाकर अपनी प्रेरणाओं के लिए लोक पर निर्भर हैं. यह सवाल करने पर कि क्या उन्हें लगता है कि वे अपने चित्रों के माध्यम से लोक को संस्कारित कर रहे हैं, वे नकारने लगते हैं. उनकी दृष्टि का लोक स्वयं–समृद्ध सत्ता है, ‘अपने आप में वह इतना समृद्ध है कि उसे संस्कारित करने की जरूरत ही नहीं पड़ती.’ किसी भी बड़े कलाकार में ऐसी विनम्रता केवल उसके चरित्र का अनिवार्य गुण नहीं होती, बल्कि लोक को पहचानने की जिद में आत्म को बिसार देने के लिए भी यह अनिवार्य शर्त है.
एक बहुत पुरानी बहस है कि ‘जीवन कला के है या कला जीवन के लिए.’ इसका समर्थन और विरोध करने वालों के अपने–अपने तर्क हैं जो विशिष्ट परिस्थिति के अनुसार अदलते–बदलते रहते हैं. यह हमारे समय की विडंबना है कि गरीब और साधारणजन के नाम पर रची गई कला, उसके किसी काम की नहीं होती. ऐसा नहीं है कि उन्हें इसकी समझ नहीं होती. दरअसल कलाकार की परिस्थितियां और उसका विशिष्टताबोध किसी भी रचना को जिस खास ऊंचाई तक ले जाते हैं, उसका मूल्य चुकाना जनसाधारण की क्षमता से बाहर होता है. यह त्रासदी कमोबेश हर कला के साथ जुड़ी है. संभ्रांत होने की कोशिश में कला अपने वर्ग की पहुंच से बाहर हो जाती है. डॉ. रत्नाकर कला का उद्देश्य जीवन और समाज को सौंदर्यवान बनाने में मानते हैं, ‘जीवन के सारे उपक्रम अंततः इस दुनिया को सुंदर बनाने के उपक्रम हैं. कला के विविध माध्यम कहीं न कहीं हमारे कार्य–व्यापार को व्यापक और सरल बनाते हैं. इसकी जरूरत इतनी आसानी से खत्म होने वाली नहीं है, हां आपूर्ति जब–जब कटघरे में खड़ी होगी, तब–तब इस तरह के सवाल जरूर उठाए जाते रहेंगे. आखिर वह कला ही क्या जो आमजन के लिए न हो.’
पिछले कुछ वर्षों में डॉ. रत्नाकर की कला के सरोकार और भी व्यापक हुए हैं. वे संभवतः अकेले ऐसे चित्रकार हैं जो सामाजिक न्याय की साहित्यिक अवधारणा को चित्रों के जरिए साकार कर रहे हैं. उन्होंने विशेषरूप से ‘फारवर्ड प्रेस’ के लिए ऐसे चित्र बनाए हैं, जिनके बुनियादी सरोकार आम जन की राजनीति और सामाजिक न्याय से हैं. यह समझते हुए कि सांस्कृतिक दासता, राजनीतिक दासता से अधिक लंबी और त्रासद होती है. उसका सामना केवल और केवल जनसंस्कृति के सबलीकरण द्वारा संभव है—उन्होंने परंपरा से हटकर ऐसे लोक–उन्नायकों के चित्र बनाए हैं, जो भारतीय बहुजन के वास्तविक नायक रहे हैं. अपने स्वार्थ की खातिर, अभिजन संस्कृति के पुरोधा उनका जमकर विरूपण करते आए हैं. अतः जरूरत उस गर्द को हटाने की है जो वर्चस्वकारी संस्कृति के पैरोकारों ने बहुजन संस्कृति के नायकों के चारित्रिक विरूपण हेतु, इतिहास के लंबे दौर में उनपर जमाई है. डॉ. रत्नाकर ने बहुजन संस्कृति के जिन प्रमुख उन्नायकों के चित्र बनाए हैं, उनमें नास्तिक विचारक कौत्स, आजीवक मक्खलि गोसाल अजित केशकंबलि, पौराणिक सम्राट महिषासुर आदि प्रमुख हैं. कुछ और चित्र जो उनसे अपेक्षित हैं, उनमें महान आजीवक विद्वान पूर्ण कस्सप, बलि राजा, पुकुद कात्यायन आदि का नाम लिया जा सकता है.
यह ठीक है कि भारत के सांस्कृतिक इतिहास में इन बहुजन विचारकों एवं महानायकों के चित्र तो दूर, सूचनाएं भी बहुत कम उपलब्ध हैं. लेकिन असली चित्र तो देवी–देवताओं के भी प्राप्त नहीं होते. उनके बारे में प्राप्त विवरण भी हमारे पौराणिक लेखकों और कवियों की कल्पना का उत्स हैं. मूर्ति पूजा का जन्म व्यक्ति पूजा से हुआ है. इस विकृति से हमारा पूरा समाज इतना अनुकूलित है कि उससे परे वह कुछ और सोच ही नहीं पाता है. हर बहस, सुधारवाद की हर संभावना, आस्था के नाम पर दबा दी जाती है. मूर्तियों और चित्रों में गणेश, राम, सीता, कृष्ण, विष्णु आदि को जो चेहरे और भंगिमाएं आज प्राप्त हैं, उनमें से अधिकांश उन्नीसवीं शताब्दी के कलाकार राजा रविवर्मा की देन हैं. अतः बहुजन दार्शनिकों और महानायकों के चरित्र को उनके चित्र के माध्यम से उजागर करने की डॉ. रत्नाकर तथा ‘फारवर्ड प्रेस’ की मुहिम न केवल सराहनीय बल्कि सामाजिक न्याय की दिशा में उठाया गया क्रांतिकारी कदम है. डॉ. रत्नाकर का यह कार्य इतना मौलिक और महान है कि सिर्फ इन्हीं चित्रों के लिए वे कला इतिहास में लंबे समय तक जाने जाएंगे. डॉ. रत्नाकर प्रशंसकों में से एक वरिष्ठ साहित्यकार से.रा. यात्री लिखते हैं—
‘भारत के सम्पूर्ण कला जगत में वह एक ऐसे विरल चितेरे हैं जिन्होंने अनगढ़, कठोर और श्रम स्वेद सिंचित रूक्ष जीवनचर्या को इतने प्रकार के रमणीक रंग–प्रसंग प्रदान किए हैं कि भारतीय आत्मा की अवधारणा और उसका मर्म खिल उठा है. आज रंग संसार में जिस प्रकार की अबूझ अराजकता दिनों दिन बढ़ती जा रही है उनका सहज चित्रांकन न केवल उसे निरस्त करता है वरन भारतीय परिवेश की सुदृढ़ पीठिका को स्थापित भी करता है.’
मैं समझता हूं देश के वरिष्ठतम साहित्यकारों में से एक यात्री जी की प्रामाणिक टिप्पणी के बाद कुछ और कहने को रह ही नहीं जाता.
ओमप्रकाश कश्यप