Archive | फ़रवरी 2010

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दंश —सातवीं किश्त

धारावाहिक उपन्यास मां ने पूरी रात जैसे कांटों पर चलकर बिताई थी. दिन ऊबड़-खाबड़ पथरीले जंगल में नंगे पांव भटकने जैसा था. सुबह हुई. मगर हमारे लिए तो आने वाला दिन भी अंधेरा था. काला….गहरा….डरावना और घोर नाउम्मीदियों से भरा हुआ. जिसकी कोई मंजिल न थी. सिर्फ ठोकरें थीं और भटकाव. बेशुमार ठोकरें और अंतहीन […]

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दंश — छ्ठी किश्त

धारावाहिक उपन्यास बापू के स्वभाव को लेकर अनेक विचार मेरे दिमाग में आते. प्रायः हर विचार में वह मुझे खलनायक के रूप में दिखाई पड़ता. मन में उसके प्रति घृणा-नफरत जैसा न जाने क्या-क्या चलता रहता. परंतु मां का बापू के प्रति समर्पण मुझे उसके विरुद्ध मुंह खोलने न देता. कभी-कभी यही असमंजस अंतहीन तनाव […]

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