Tag Archive | हिंदी उपन्यास
आराधक
रोटी के लिए दर–दर भटकने वाले बीमार–खजेडे़, आवारा कुत्ते से पूछा मैंने–देखा है ईश्वर को कभी? हां, बोला वह बडे़ जोश से होता है वह अलशेसियन–सा प्यारा, खूबसूरत, सदा जवान चालाक और फुर्तीला बुद्धिमान ओर ताकतवर बेहद वफादार भी न बहुत मोटा न पतला न बहुत नाटा न ऊंचा सीपी–सा गोल–मटोल चमकदार आंखों वाला छरहरा […]
दंश: बीसवीं किश्त
धारावाहिक उपन्यास बौराया हुआ आदमी खेद प्रकट करते समय भी पचास बार सोचता है. उस घटना का मेरे मन पर गहरा प्रभाव पड़ा था. एकदम अमिट….अभूतपूर्व और अनोखा! मेरा मन वहां के माहौल के प्रति वितृष्णा भरा था. जिस बड़ीम्मा को देखकर मुझे अपनी मां याद आने लगती, उससे भी मुझे सैकड़ों शिकायतें थीं. जिनका […]
दंश : 16वीं किश्त
धारावाहिक उपन्यास समस्याएं चुनौती ही नहीं बनतीं, आदमी को जीना भी सिखाती हैं. कई दिनों की अतृप्त आत्मा….गर्मागरम भोजन. बड़ीम्मा का स्नेह–सत्कार. भटकाव के बाद कुछ देर का आराम. जिंदगी बहुरंगी होती है. पर उस क्षण दुनिया की सभी रंगीनियां उस भोजन में विराजमान थीं. शायद इसलिए कि कई दिन के अंधकार के बाद […]
दंश : 15वीं किश्त
धारावाहिक उपन्यास सत्ता की प्रामाणिकता कोई अमूर्तन स्थिति नहीं है. वह सर्वानुकूल स्थितियों का श्रेष्ठतम चयन है. सबकुछ वक्त के हवाले कर देना. जितना यह सोचना आसान है, करना उतना ही मुश्किल, असंभव–सा काम है. आदमी के भीतर छिपा हुआ डर, आगत की चिंता और भविष्य की अनिश्चितता के चलते यह संभव भी कहां हो […]
दंश : 14वीं किश्त
उच्छिष्ट अगले दिन सूरज की किरणों ने मेरे बदन के छुआ, तब आंखें खुलीं. बीती रात नींद बहुत देर से आई थी. मां, बापू, बेला, हरिया, कालू, मतंग चाचा, पुलिस, थाने और न जाने किस–किस के बारे में क्या–क्या सोचता रहा था मैं. प्लेटफार्म के कई बार निरुद्देश्य घूमा भी. पहली बार डरते–डरते, बाद में […]
दंश : तेरहवीं किश्त
दुनिया में वही सिकंदर है जो जीवन के प्रत्येक संघर्ष में नए उत्साह के साथ उतरता है. उसे पराजय भी जीत का सा आनंद देती है. सुख हो कि दुख…. धूप हो कि छांव…. दिन हो रात, समय की यात्रा कभी नहीं रुकती. अनवरत चलती ही जाती है. किस दिशा में–कौन जाने? हालांकि दुनिया में […]
दंश : बारहबीं किश्त
धारावहिक उपन्यास यही छल तो गरीबी का सच है. मां ने दुख और अभावों को गले लगाया था. तमाम उम्र वह दूसरों के लिए संघर्ष करती रही. खटती रही अपने परिवार के लिए दिन–रात. किसी से भी कभी शिकायत नहीं की. कभी किसी से कुछ मांगा भी नहीं. मां के जीवन की विडंबना भी यही […]
दंश – ग्यारहवीं किश्त
दंश — धारावाहिक उपन्यास साधारण इंसान कहने से क्या बापू के पाप कम हो जाते हैं? यह कहकर क्या जिम्मेदारी से भागा जा सकता है? नहीं न! बापू को इससे पहले भी मैं अपना सगा नहीं मानता था. इस घटना के बाद तो जैसे संबंध टूट की गया. घटना क्या, वह एक आंधी थी. जिसने […]
दंश – दसवीं किश्त
धारावाहिक उपन्यास अगले ही पल दरोगा ने सिपाही को इशारा किया. लड़खड़ाते कदमों से वह हवालात की ओर बढ़ गया. चलते–चलते उसने जेब से चाबियों का गुच्छा निकाला. हवालात का दरवाजा खुलते ही बापू फौरन बाहर आ गया. वह बहुत कमजोर दिख रहा था. मगर व्यवहार में लापरवाही अब भी बाकी थी. हवालात से निकलने […]
दंश – नवीं किश्त
धारावाहिक उपन्यास भीतर शराब अपना रंग दिखा रही थी. दरोगा और सिपाही नशे में झूम रहे थे. भद्दी-घिनौनी गालियां हवा में उछाली जा रही थीं. हा-हुल्लड़ और शोर-शराबे के बीच मां की फरियादें दम तोड़ रही थीं. वह घुटनों में मुंह छिपाए सिसक रही थी. इस उम्मीद में कि शायद किसी को उसपर तरस आ […]