Tag Archive | धारावाहिक उपन्यास
दंश : तैइसवीं किश्त
धारावाहिक उपन्यास जमींदारी समाप्त हो चुकी थी. मगर पूंजी के साथ नए किस्म का सामंतवाद अपनी जगह बना रहा था. विल्मोर का कारोबार बड़ी तेजी से जम रहा था. केवल चार साल के छोटे से अंतराल में कंपनी की सालाना बिक्री दो गुनी हो चुकी थी. कंपनी को अपने नए कारखाने के लिए जमीन की […]
दंश : बाइसवीं किश्त
दंश % बाइसवीं किश्त धारावाहिक उपन्यास मैं जानता हूं बेटा कि तू मुझसे नाराज है. मेरे वर्ताब के लिए तू मुझे जी-जान से कोस रहा होगा. इसका तुझे पूरा हक है. पूरी तरह सच्चा है तेरा गुस्सा. तेरी नफरत, तेरी हर शिकायत और तेरा प्रत्येक इल्जाम मेरे सिर-माथे. तेरा कुसूरवार हूं मैं. आज से नहीं […]
दंश : इकीसवीं किश्त
दंश : धारावाहिक उपन्यास जीवन को जो खेल समझते हैं, वे खिलवाड़ का शिकार बनकर रह जाते हैं. सवेरे सलीम के जगाने पर आंखें खुलीं. वह देर से मुझे खोज रहा था. उसी ने बताया कि मेरा मालिक प्लेटफार्म पर आ चुका है. मुझे कोसता हुआ वह भट्टी सुलगाने में व्यस्त है. तब आंखें मलते […]
दंश: बीसवीं किश्त
धारावाहिक उपन्यास बौराया हुआ आदमी खेद प्रकट करते समय भी पचास बार सोचता है. उस घटना का मेरे मन पर गहरा प्रभाव पड़ा था. एकदम अमिट….अभूतपूर्व और अनोखा! मेरा मन वहां के माहौल के प्रति वितृष्णा भरा था. जिस बड़ीम्मा को देखकर मुझे अपनी मां याद आने लगती, उससे भी मुझे सैकड़ों शिकायतें थीं. जिनका […]
दंश : उनीसवीं किश्त
धारावाहिक उपन्यास और सच होने के कारण शायद कुछ कड़वी भी. बड़ीम्मा ने जाने क्या देखा था मुझमें, मैं कभी समझ नही पाया. संभवतः वह मुझे चेतावनी देना चाहतीं कि जिस दुनिया में अकेला घिसटने का प्रयास कर रहा हूं, वह एकदम आसान नहीं है. उसमें घिसटने के लिए भी कौशल की जरूरत पड़ती है. […]
दंश : अठारहवीं किश्त
धारावाहिक उपन्यास समस्याएं चुनौती ही नहीं बनतीं, आदमी को जीना भी सिखाती हैं. कई दिनों की अतृप्त आत्मा….गर्मागरम भोजन. बड़ीम्मा का स्नेह–सत्कार. भटकाव के बाद कुछ देर का आराम. जिंदगी बहुरंगी होती है. पर उस क्षण दुनिया की सभी रंगीनियां उस भोजन में विराजमान थीं. शायद इसलिए कि कई दिन के अंधकार के बाद […]
दंश : सतरहवीं किश्त
धारावाहिक उपन्यास और सच होने के कारण शायद कुछ कड़वी भी. बड़ीम्मा ने जाने क्या देखा था मुझमें, मैं कभी समझ नही पाया. संभवतः वह मुझे चेतावनी देना चाहतीं कि जिस दुनिया में अकेला घिसटने का प्रयास कर रहा हूं, वह एकदम आसान नहीं है. उसमें घिसटने के लिए भी कौशल की जरूरत पड़ती है. […]
दंश : 16वीं किश्त
धारावाहिक उपन्यास समस्याएं चुनौती ही नहीं बनतीं, आदमी को जीना भी सिखाती हैं. कई दिनों की अतृप्त आत्मा….गर्मागरम भोजन. बड़ीम्मा का स्नेह–सत्कार. भटकाव के बाद कुछ देर का आराम. जिंदगी बहुरंगी होती है. पर उस क्षण दुनिया की सभी रंगीनियां उस भोजन में विराजमान थीं. शायद इसलिए कि कई दिन के अंधकार के बाद […]
दंश : 15वीं किश्त
धारावाहिक उपन्यास सत्ता की प्रामाणिकता कोई अमूर्तन स्थिति नहीं है. वह सर्वानुकूल स्थितियों का श्रेष्ठतम चयन है. सबकुछ वक्त के हवाले कर देना. जितना यह सोचना आसान है, करना उतना ही मुश्किल, असंभव–सा काम है. आदमी के भीतर छिपा हुआ डर, आगत की चिंता और भविष्य की अनिश्चितता के चलते यह संभव भी कहां हो […]
दंश : 14वीं किश्त
उच्छिष्ट अगले दिन सूरज की किरणों ने मेरे बदन के छुआ, तब आंखें खुलीं. बीती रात नींद बहुत देर से आई थी. मां, बापू, बेला, हरिया, कालू, मतंग चाचा, पुलिस, थाने और न जाने किस–किस के बारे में क्या–क्या सोचता रहा था मैं. प्लेटफार्म के कई बार निरुद्देश्य घूमा भी. पहली बार डरते–डरते, बाद में […]