उपन्यास
दंश : बाइसवीं किश्त
दंश % बाइसवीं किश्त धारावाहिक उपन्यास मैं जानता हूं बेटा कि तू मुझसे नाराज है. मेरे वर्ताब के लिए तू मुझे जी-जान से कोस रहा होगा. इसका तुझे पूरा हक है. पूरी तरह सच्चा है तेरा गुस्सा. तेरी नफरत, तेरी हर शिकायत और तेरा प्रत्येक इल्जाम मेरे सिर-माथे. तेरा कुसूरवार हूं मैं. आज से नहीं […]
दंश: बीसवीं किश्त
धारावाहिक उपन्यास बौराया हुआ आदमी खेद प्रकट करते समय भी पचास बार सोचता है. उस घटना का मेरे मन पर गहरा प्रभाव पड़ा था. एकदम अमिट….अभूतपूर्व और अनोखा! मेरा मन वहां के माहौल के प्रति वितृष्णा भरा था. जिस बड़ीम्मा को देखकर मुझे अपनी मां याद आने लगती, उससे भी मुझे सैकड़ों शिकायतें थीं. जिनका […]
दंश : 14वीं किश्त
उच्छिष्ट अगले दिन सूरज की किरणों ने मेरे बदन के छुआ, तब आंखें खुलीं. बीती रात नींद बहुत देर से आई थी. मां, बापू, बेला, हरिया, कालू, मतंग चाचा, पुलिस, थाने और न जाने किस–किस के बारे में क्या–क्या सोचता रहा था मैं. प्लेटफार्म के कई बार निरुद्देश्य घूमा भी. पहली बार डरते–डरते, बाद में […]
दंश : तेरहवीं किश्त
दुनिया में वही सिकंदर है जो जीवन के प्रत्येक संघर्ष में नए उत्साह के साथ उतरता है. उसे पराजय भी जीत का सा आनंद देती है. सुख हो कि दुख…. धूप हो कि छांव…. दिन हो रात, समय की यात्रा कभी नहीं रुकती. अनवरत चलती ही जाती है. किस दिशा में–कौन जाने? हालांकि दुनिया में […]
दंश – आठवीं किश्त
धारावाहिक उपन्यास शायद गलत कहा मैंने. गलतफहमियां पूरे-पूरे परिवार निगल जाती हैं, संभलने का कोई मौका दिए बिना. चोर के पकड़े जाने का समाचार अखबार में छपा. दरोगा के फोटो के साथ. खबर मिलते ही बड़ा दरोगा थाने आ धमका. बापू का अंगूठा लगा बयान पढ़कर उसने नए दरोगा की पीठ थपथपाई….ऊपर से शाबासी दिलवाने….तरक्की […]
दंश —सातवीं किश्त
धारावाहिक उपन्यास मां ने पूरी रात जैसे कांटों पर चलकर बिताई थी. दिन ऊबड़-खाबड़ पथरीले जंगल में नंगे पांव भटकने जैसा था. सुबह हुई. मगर हमारे लिए तो आने वाला दिन भी अंधेरा था. काला….गहरा….डरावना और घोर नाउम्मीदियों से भरा हुआ. जिसकी कोई मंजिल न थी. सिर्फ ठोकरें थीं और भटकाव. बेशुमार ठोकरें और अंतहीन […]
दंश — छ्ठी किश्त
धारावाहिक उपन्यास बापू के स्वभाव को लेकर अनेक विचार मेरे दिमाग में आते. प्रायः हर विचार में वह मुझे खलनायक के रूप में दिखाई पड़ता. मन में उसके प्रति घृणा-नफरत जैसा न जाने क्या-क्या चलता रहता. परंतु मां का बापू के प्रति समर्पण मुझे उसके विरुद्ध मुंह खोलने न देता. कभी-कभी यही असमंजस अंतहीन तनाव […]
दंश – चौथी किश्त
धारावाहिक उपन्यास इस प्रकार मेरा नामकरण बापूधाम की परंपरा के अनुसार ही हुआ. मैं परमात्मा सेन कहलाने लगा. इस नामकरण की सूचना परमात्माशरण को कई वर्ष बाद मिली. तो भी वह बहुत प्रसन्न हुआ. चुनाव हारने का जो गम था, वह इस घटना के बाद काफी कम हो गया. अपनी खुशी जाहिर करते हुए परमात्माशरण […]
दंश – तीसरी किश्त
धारावाहिक उपन्यास आज बापूधाम को बसे वर्षों बीत चुके हैं. विधवा की मामूली झोंपड़ी से महानगर का सबसे बड़ा वोट उत्पादक क्षेत्र बनने की, बापूधाम की कथा बेहद रोमांचक है. मगर कितने लोग हैं जो इस हकीकत से परिचित हैं. सिवाय बस्ती के दो-चार बूढ़ों या सीलन और दीमक से नाममात्र को बचे थोड़े-से सरकारी […]
दंश—धारावाहिक उपन्यास
दूसरी किश्त नमस्ते, बाबू साहेब! हुजूर! मैं परमात्मा सेन उर्फ परमात्मा शरण वल्द घुरिया, उर्फ घनश्याम आपको अपनी आपबीती सुनाना चाहता हूं—सुनिएगा न! सिरीमान! कहानी शुरू करूं उससे पहले आपसे एक गुजारिश है. जरा धीरज बनाए रखिएगा. क्योंकि बात जरा लंबी है. हां, यदि बोर होने लगेंतो शरमाइएगा मत. हाथ उठा देना. मैं चुप हो […]