ईश्वर की मौत
देवनगरी से संदेश वायरल हुआ कि बीती रात ईश्वर दिवंगत हुआ. अगले सात दिनों तक तीनों लोकों में शोककाल लागू रहेगा. इस दौरान न तो इंद्रलोक में अप्सराओं का नृत्य होगा. न कोई हवन, कीर्तन, पूजा–पाठ वगैरह. संदेश की प्रति आधिकारिक रूप से भी तीनों लोकों में पहुंचा दी गई.
नारद चाहते तो शोककाल के नाम पर छुट्टी मार लेते. लेकिन चाहे जो भी हो, न तो सागर पर तरंगों का आना–जाना रुकता है, न नदियां अपना प्रवाह रोकती हैं. नारद भी ऐसे ही थे. सो निकल पड़े मृत्युलोक का जायजा लेने. वहां जो देखा उससे आंखें फटी की फटी रह गईं. शोक–संदेश का मृत्युलोक पर कोई असर नहीं था. मंदिर पहले की तरह गुले–गुलजार थे. बाहर श्रद्धालु कतार लगाए खड़े थे, भीतर पूजा–पाठ, भजन–कीर्तन, यज्ञ आदि कर्मकांड चालू थे. हैरान नारद नगर के सबसे बड़े मंदिर के सबसे बड़े पुजारी से मिले—
‘मालूम है, कल रात ईश्वर नहीं रहे.’
‘हां, सुना तो था. एक पत्र भी मिला था, उधर पड़ा है, देख लो.’ पुजारी ने लापरवाही से एक ओर इशारा किया. वहां पुराने ग्रंथों के ढेर पर एक नया लिफाफा पड़ा था. उन ग्रंथों पर धूल जमी थी. उन्हें पहले दीमक ने खाया था. इन दिनों चूहे उनपर दांत आजमा रहे थे.’
‘शोककाल की घोषणा हो चुकी है. सारे उत्सव, समारोह, पूजा–पाठ, जश्न रोक दिए गए हैं. आप भी श्रद्धालुओं तक खबर पहुंचा दें.’ नारद ने कहा, फिर कुछ सोचकर दरवाजे की ओर मुड़े, ‘ठहरिए, मैं ही बताए देता हूं.’
‘न…न! यह गजब मत करना….’ पुजारी ने टोका.
‘क्यों!’
‘देवलोक में क्या होता है, ये देवता जानें, हमारा भगवान् तो सिर्फ यह मूर्ति है. तुम देख सकते हो, यह जैसे कल मुस्करा रही है, वैसे आज भी मुस्करा रही है. बस अब आप प्रस्थान करें. श्रद्धालुओं की कतार और लंबी हुई तो सड़क पर जाम लग जाएगा.’
बातों के धनी नारद को कोई जवाब न सूझा.
हत्यारा
उस समय जब ईश्वर अपने भक्तों से घिरा हुआ था, और भक्त ‘मुक्ति–मुक्ति’ की रट लगा रहे थे—किसी ने संविधान की एक प्रति उसके आगे लाकर रख दी. ईश्वर ने उसे आगे–पीछे देखा, दो–चार पेज उलटे–पलटे, फिर चुपचाप किनारे कर दिया—
‘ये सब नए जमाने के चोंचले हैं. हमारे जमाने में तो एक ही पुस्तक थी—‘मनुस्मृति.’
‘क्या आपने उसे पढ़ा था?’ संविधान लाने वाले पत्रकार ने पूछा.
‘हमारे गुरुदेव ने पढ़ा होगा.’
‘आपने?’
‘हमें तो बस मरना–मारना सिखाया था. गुरुदेव ने जब–जैसा कहा, हम वैसे ही भिड़ गए. एक बार गुरुदेव ने कहा कि जंगल में शूद्र शंबूक वेदाध्ययन कर रहा है, उसे मार डालो, हमने….’
‘आपने पूछा नहीं कि ग्रंथ तो अध्ययन–मनन के लिए ही होते हैं, अगर शंबूक उन्हें पढ़ रहा था तो पढ़ने देते. उसमें पाप कैसा?’
‘ये हम नहीं जानते. वैसे भी शंबूक से हमारी कोई जाती दुश्मनी तो थी नहीं. हमें तो बस इतना पता है कि गुरुजी ने उसे मारने का आदेश दिया और हमने उसे मार डाला.’
‘बगैर सोचे–समझे मार डाला?’
‘सोचने–विचारने का काम तो गुरुदेव का था.’ ईश्वर तर्क से बचना चाहता था.
‘तुम तो राजा थे. एक निर्दाेष की हत्या करने से इन्कार कर सकते थे?’
पहली बार ईश्वर हंसा, बोला—‘इन्कार कर देते तो हमें ईश्वर कौन बनाता!’
आगे बातचीत के लिए कुछ था नहीं. पत्रकार ने संविधान को उठाया और वापस चल दिया. कुछ दूर चलने के बाद उसने मुड़कर देखा, भक्तमंडली में से अनेक उसके पीछे–पीछे आ रहे थे.
ओमप्रकाश कश्यप