जनविद्रोह
तानाशाह का मन एक बकरी पर आ गया. बकरी भी अजीब थी. बाकी लोगों के आगे ‘मैं…मैं’ करती, परंतु तानाशाह के सामने आते ही चुप्पी साध लेती थी. तानाशाह उसकी उसकी गर्दन दबोचता. टांगें मरोड़ता. कानों को ऐंठ–ऐंठकर लाल कर देता. बकरी तानाशाह की टांगों में सिर फंसाकर खेल खेलती. दर्द भुलाकर उसकी हथेलियों में मुंह छिपा लेती थी.
तानाशाह जहां भी जाता, बकरी को अपने साथ ले जाता. जोश में होता तो बकरी को हाथों में उठा लेता. लोगों के सामने बकरी की गर्दन दबाता, उसके कान मरोड़ता, बकरी चुप रहती. तानाशाह का जोश बढ़ जाता—‘मित्रो! मैं अपनी जनता से उतना ही प्यार करता हूं, जितना इस बकरी से. यह किसी कोहिनूर से कम नहीं है. आप देख सकते हैं. कितनी गजब की सहनशीलता है इसमें….’ कहते–कहते उसके हाथ बकरी की गर्दन को कसने लगते. उसकी चुप्पी देख तानाशाह का जोश बहुगुणित हो जाता. शब्द होठों से फिसलने लगे—‘मित्रो! राष्ट्र बड़ी चीज है. हमें इसे आगे ले जाना है, बहुत आगे ले जाना है….’
‘आपके मंत्री देश के कमाऊ प्रतिष्ठानों को बेच रहे हैं. नोटबंदी से छोटे उद्यम तबाह हो चुके हैं. सांप्रदायिकता चरम पर है. एक जानवर के जान की कीमत आदमी की जान से ज्यादा है. किसान भूख से आत्महत्या कर रहे हैं, पर आपकी सरकार बुत बनवाने में लगी है….’
जनता का मौन आखिरकार भंग हुआ. इसी के साथ तानाशाह के हाथ बकरी की गर्दन को कसने लगे. मुंह माइक के करीब आ गया. आवाज महीन और डरावनी हो गई—
‘मित्रो! देश के विकास के लिए सहनशीलता और सकारात्मक सोच आवश्यक है. इस बकरी से सीखिए. इसकी तरह सकारात्मक बनिए. राष्ट्र आपसे बलिदान मांगता है. तो बोलो—‘जय….’
‘हिंद.’ मंच पर पीछे से आवाज आई. तानाशाह की गोद में पड़ी बकरी के गले से निकला— ‘मैं..ऽ…ऽ….’
तानाशाह ने चौंककर बकरी की ओर देखा. फिर सामने नजर डाली. वहां सन्नाटा पसरा था. लोग पंडाल छोड़कर जा चुके थे.
भेड़ियों का स्वर्ग
एक समय था जब गाय, भैंस और बकरियों के बीच बड़ी एकता थी. वे साथ–साथ रहतीं. साथ–साथ चरतीं. साथ–साथ पानी पीने जाती थीं. सभी खुश थीं. किसी को किसी का भय नहीं था. उनकी एकता बढ़ती जा रही थी. साथ–साथ उनका कारवां भी विस्तार ले रहा था—
‘जैसे–जैसे इनका संगठन बढ़ रहा है, हमारी चुनौती भी बढ़ती जा रही है.’ एक दिन एक भेड़िया दूसरे भेड़िया से बोला.
‘मैंने और लोमड़ी ने इनके बीच फूट डालने की बड़ी कोशिश की, परंतु नाकाम रहे हैं.’ पीछे खड़े सियार ने बात बनाई.
‘हूं….तब तो हमें ही कुछ करना होगा.’ भेड़िया बोला. उसके बाद उनकी गुप्त सभा हुई. चंद दिनों बाद जंगल में कुछ धर्मोपदेशकों ने प्रवेश किया. आते ही उन्होंने जंगल के एक सिरे पर गाय की मूर्ति बनाई. दूसरे पर भैंस की. फिर एक श्वेत वस्त्रधारी धर्मोपदेशक गायों के काफिले के बीच पहुंचा और कहने लगा —
‘भैंस गायों की बराबरी करें, यह अच्छी बात नहीं है. गायों के देवता को देखो, कितना सुंदर, सजीला और मनमोहक है. उसका कहना है कि यह पूरा जंगल केवल गायों के लिए है.’
‘भैंस गायों से कहीं ज्यादा शक्तिशाली हैं. उनके देवता के आगे गायों का देवता टिक नहीं सकता. एक दिन पूरे जंगल पर केवल भैंसों का अधिकार होगा.’ भैंसों के बीच पहुंचे श्याम वस्त्रधारी धर्मोपदेशक ने बताया. अपनी–अपनी बात के समर्थन में दोनों ने अलग–अलग कहानियां सुनाईं, जिन्हें उन्होंने इसी अवसर के लिए गढ़ा था.
कुछ दिनों के बाद गाय और भैंसों के काफिले बंट चुके थे. उनकी देखा–देखी बकरियों ने भी अपना देवता गढ़ लिया था, जो देखने में एकदम बकरी जैसा था.
अपनी कामयाबी का जश्न मनाने के लिए भेड़ियों ने एक सभा बुलाई. सभा में भेड़ियों के सरदार ने नारा लगाया—‘धरती पर यदि कहीं स्वर्ग है तो….
बाकी भेड़ियों ने साथ दिया—यहीं है, यहीं है, यहीं है….
डर
गर्वीला तानाशाह दर्पण के सामने पहुंचा. वहां अपना ही प्रतिबिंब देख वह घबरा गया. देह पसीना–पसीना हो गई.
‘डरो मत! मैं वही हूं जो तुम हो.’ दर्पण से आवाज आई.
‘बको मत….’ तानाशाह की चीख पूरे महल में गूंजने लगी. मंत्री, संत्री, नौकर–चाकर दौड़े–दौड़े आए. दर्पण के ऊपर कपड़ा डाल दिया गया. तानाशाह का क्रोध तब भी कम न हुआ. इसपर उसका चहेता मंत्री उसके पास पहुंचा. दूर ही से लंबा सलाम ठोकने के बाद वह बोला—‘सिरीमान! दर्पण झूठा है. राज्य के सारे दर्पण झूठे हैं. आपको अपनी तस्वीर देखनी है तो मेरी आंखों में झांककर देखिए.’
‘हां–हां, हमारी आंखों में झांककर देखिए….’ सारे दरबारी एक साथ बोल पड़े. तानाशाह ने बारी–बारी से सबकी आंखों में झांका. वहां उसे वैसी ही तस्वीर नजर आई, जैसी वह देखना चाहता था. उसके बाद दर्पणों को नष्ट कर दिया गया. लेकिन तानाशाह ने दर्पण में जो देखा था, वह उसके मन–मस्तिष्क पर हमेशा–हमेशा के लिए अंकित हो चुका था. रात को सोते–जागते, वह तस्वीर तानाशाह के आंखों में अकसर उभर आती. इसी के साथ उसकी नींद उचट जाती. डर उसके सीने पर सवार हो जाता. वह जोर से चीखने–चिल्लाने लगता.
एक रात तानाशाह की आंखों से नींद गायब थी. सिर चकरा रहा था. उसने पानी मंगवाया. मुंह धोने ही जा रहा था कि लोटे में फिर वही छवि साकार हो गई—
‘मुझसे भागो मत! मैं तुम्हारा ही असली रूप हूं.’ आवाज आई. तानाशाह आपे से बाहर हो गया. उसने लोटा जमीन पर पटक दिया. सारा पानी जमीन पर फैल गया. लेकिन यह क्या, फर्श पर फैले पानी में वही छवि, पहले से कहीं ज्यादा विकृत रूप में नजर आ रही थी.
‘मैं तुम्हें छोड़ूंगा नहीं.’ कहते हुए तानाशाह ने बंदूक तान ली.
‘मुझे मारने के लिए तुम्हें खुद को भी मारना पड़ेगा.’ छवि की ओर से आवाज आई. मारे क्रोध के तानाशाह के दिमाग की शिराएँ सुन्न हो चुकी थीं. सिर चकरा रहा था. आवेश में अचानक गोली चली.
अब न तानाशाह था न ही उसकी छवि.
ओमप्रकाश कश्यप