आधुनिक लोककथा —एक
गाय और भैंस को प्यास लगी. दोनों पानी पीने चल दीं. चलते–चलते गाय ने भैंस से कहा—‘मैं वर्षों तक न भी नहाऊं तब भी पवित्र कही जाऊँगी.
‘कोई क्या कहता है, से ज्यादा जरूरी अपनी असलियत पहचानना है.’ भैंस बोली. गाय की कुछ समझ में न आया, बोली—‘मैं समझी नहीं, तू चाहती क्या है?
‘आजादी!’
‘आजादी?’ गाय फिर उलझ गई. तालाब करीब आ चुका था. भैंस दौड़कर उसमें घुस गई और मजे से पानी पर तैरने लगी.
गाय तालाब के किनारे–किनारे चरने लगी.
आधुनिक लोककथा—दो
गाय और भैंस एक जगह बैठीं थीं. तभी कोई चिल्लाया—‘भागो! दंगाई आ रहे हैं.’
गाय–भैंस दोनों भाग छूटीं. दौड़ते–दौड़ते दोनों दूर निकल आईं. मगर डर कम न हुआ. पीछे भागते कदमों की आवाजें और चीख–पुकार बढती ही जा रही थीं. तभी दोनों को एक झोपड़ी दिखाई दी. भैंस रुक गई. उखड़ती सांसों पर काबू पाने की कोशिश करते हुए भैंस बोली—
‘इधर वाले हों या उधर वाले. दंगों को भड़काने के लिए तेरा सहारा जरूर लेंगे. ऐसा कर तू उस झोपड़ी में छिप जा, उन्हें मैं देख लूंगी.’ गाय के जाने के बाद भैंस झोपड़ी के दरवाजे पर बैठ गए.
डरावनी आवाजें पास आकर रुकीं. फिर दूर–जाते–जाते शांत हो गई.
एक बार एक गाय पर भेड़िया ने हमला कर दिया. बराबर में चर रही भैंस की नजर उसपर पड़ी. वह गुस्से से फुफकारती हुई वहां पहुंची और जोरदार टक्कर भेड़िया के मारी. भेड़िया दूर जा गिरा. उसके बाद से गाय उस भैंस के साथ रहने लगी. एक दिन की बात. दोनों पास बैठी थीं. मैदान के एक हिस्से में भैंसों का झुंड चर रहा था. तभी एक पुजारी वहां से गुजरा. गाय को देखकर उसने हाथ जोड़े, बोला—
‘मां, आपकी स्थान यहाँ नहीं वहां है.’ पुजारी ने गायों के झुंड की और इशारा किया.
‘मैं, अपनी जगह भली–भांति जानती हूँ. फिर इस भैंस ने तो मेरी प्राण रक्षा भी की है.’ उसके बाद गाय ने सारी घटना बता दी.
‘इसने जो किया वह तो इसका कर्तव्य था. आप अपना स्थान ग्रहण कीजिए.’ गाय चुपचाप वहां बैठी रही. पुजारी कुछ देर खड़ा–खड़ा बुदबुदाता रहा. फिर चला गया. अगले दिन वह फिर आया. इस बार दो लाठीबाज भी थे. गाय को डराने की कोशिश की, परन्तु वह हिली तक नहीं—
‘तुम्हें कितना समझाया कि इससे दूर रहो. बताया कि तुम जिसे अहसान मान रही हो वह तो भैंस का कर्तव्य था. यही इस देश की परंपरा रही है. पुजारी हूँ, आपके ऊपर प्रहार नहीं कर सकता, परन्तु गुस्ताखी के लिए इस भैंस को तो मजा चखा ही सकता हूँ जिसने इस परम्परा भंग की है.’’ इसके बाद उसने अपने लठैतों को इशारा किया. वे भैंस की और बढे. लाठी उठाई, भैंस को मारें उससे पहले ही गाय खड़ी हो गई. आगे बढ़कर लठैत को जोरदार टक्कर मारी. फिर वह पुजारी की और मुड़ी. भयभीत पुजारी ने वहां से भाग आने में ही भलाई समझी.
आप पूछेंगे ऐसा कैसे हुआ. बात ऐसी है कि धर्म, खासकर इंसानों को बाँटने वाला धर्म केवल आदमी का होता है. जानवर तो केवल प्रेम की भाषा जानते हैं.
आधुनिक लोककथा/चार : घोर कलयुग
एक धर्मानुष्ठान निपटाकर, दूसरे के निमित्त जाता हुआ पुजारी गाय को देखकर ठिठका. वह कूड़े के ढेर पर झुकी अपनी जठराग्नि को दबाने की कोशिश कर रही थी—
‘हाय राम! घोर कलयुग!! घोर कलयुग!!! लोगों को गौमाता का केवल दूध चाहिए. उसके बाद वे जहां मन चाहे जाएं, जहां जी हो मुंह मारें….ऊपर से दोष देते हैं कि ईश्वर सुनता नहीं. अरे! जहां गौमाता की कद्र न होगी, वहां सुख–शांति भला कैसे आ सकती है.’ आगे बढ़ता हुआ पुजारी बड़बड़ाया. वह दस–बारह कदम ही बढ़ा होगा कि भीतर से आवाज आई—
‘मेरे पास यजमान का दिया भोजन है. कुछ फल–फूल मिष्ठान्न भी है….क्यों न उन्हें गाय को खिला दूं. घर लौटने में तो अभी देर है.’ उसने वापस लौटना चाहा लेकिन प्रतिविचार काट के लिए तैयार था—
‘मेरे पास समय कहां है. आध घंटा पहले ही लेट हो चुका हूं. और देर हुई तो सगाई समारोह में जाने के लिए समय नहीं निकाल पाऊंगा.’ सोचते–सोचते वह पलटा और अपने लक्ष्य की ओर बढ़ गया.
दोपहर बाद का समय. पुजारी दक्षिण की पोटली उठाए घर की ओर बढ़ रहा था. जेब फूली हुई थी. कंधा झोले के बोझ से झुका जा रहा था. गाय उस समय भी कूड़े के ढेर पर मुंह मार रही थी. अचानक उसके दोनों हाथ एक साथ उठे. दाएं हाथ से पोटली और बाएं से झोले को संभालता हुआ वह बड़बड़ाया—‘हरे कृष्ण, हरे कृष्ण….घोर कलयुग घोर कलयुग!’
अब वह जल्दी से जल्दी, हो सके तो उड़कर, घर पहुँच जाना चाहता था.
आधुनिक लोककथा—पांच
सर्दी के दिन थे. बराबर–बराबर चर रहीं गाय और भैंस देह गरमाने के लिए जोर–आजमाइश करने लगीं. दोनों ने अपने सींग एक–दूसरे के सींगों में फंसा दिए. उसके बाद कभी गाय भैंस को पीछे ठेल देती तो कभी भैंस गाय को ठेलती हुई मैदान के किनारे तक ले जाती.
सहसा एक दिशा में शोर–शराबा मचने लगा. हाथों में लाठियां और डंडे उठाए भीड़ मैदान की ओर आती हुई दिखाई दी. उनकी मंशा भांप गाय और भैंस अलग–अलग होकर चरने लगीं. अचानक भैंस को न जाने क्या सूझा कि वह वहां से भाग छूटी.
उसके बाद जब वे दोनों मिली तो गाय ने पूछा—‘मैंने उन्हें समझा दिया था कि वह केवल खेल था. पर तू अचानक भाग क्यों आई थी?’
‘मैं नहीं थी, इसलिए उन्होंने तेरी बात पर विश्वास कर लिया?’
‘मुझे तो वे धर्मात्मा लोग लगे?’ गाय बोली.
‘धर्मात्मा थे, इसीलिए भागना पड़ा. आम लोग होते तो दिलो–दिमाग से काम लेते. भागने की जरूरत न पड़ती.’
‘मैं समझी नहीं….’ गाय भैंस की ओर देखने लगी.
‘समझ जाएगी, चल घर की ओर चलते हैं.’ इसके बाद दोनों गांव की ओर लौटने पड़ीं. जैसे ही गांव पहुंची, घरों से निकलकर महिलाएं गाय को रोटी खिलाने लगीं. भैंस की ओर किसी ने देखा तक नहीं. उनके जाने के बाद दोनों अकेली हुईं तो भैंस ने कहा—‘देखा, उनका धर्म कहता है, प्रत्येक जीव में एक ही परमात्मा का अंश है, लेकिन जब व्यवहार की बात आती है….’
‘बस–बस, समझ गई.’ गाय ने बीच में टोका, ‘उनका धर्म जोड़ता नहीं, बांटता है…आग लगे ऐसे धर्म को. हम बिना धर्म के ही ठीक हैं.’
आधुनिक लोककथा—छह
किसान ने गाय खरीदी. उसे लेकर घर जा ही रहा था कि रास्ते में पुजारी मिल गया—
‘कितने में खरीदी जिजमान?’
‘उधार लेकर आया हूं. मूल और ब्याज साल–भर में चुकाना है. असली कीमत तो तभी पता चलेगी.’ किसान ने बताया.
‘अच्छा किया. खूंटे पर गाय बंधी रहे तो तीन लोक सुधारती है.’ पुजारी ने जाल फेंका.
‘तीन लोकों की कौन जाने, यही जन्म सुधर जाए, उतना काफी है.’
‘हरि…हरि, दान–धर्म चलता रहे जिजमान! भगवान सब ठीक करेगा.’
किसान कुछ न बोला. तभी रास्ते में मंदिर पड़ा. पुजारी उसी ओर मुड़ गया. किसान गाय लेकर आगे बढ़ा ही था कि पीछे से आवाज आई—‘बड़ी जल्दी में हो जिजमान!’
‘क्या बताऊं….वर्षों बाद घरवाली के बच्चा हुआ है. कमजोरी के कारण छातियों में दूध नहीं उतरा तो वैद्य जी ने गाय का दूध पिलाने की सलाह दी. सो जैसे–तैसे इंतजाम करना पड़ा. बच्चा भूख से बिलबिला रहा होगा, इसलिए जल्दी में हूं.’
‘सो तो ठीक है, पर मंदिर के आगे से दुधारू गाय को प्रसाद चढ़ाए बगैर ले जाओगे तो क्या भगवान नाराज न होंगे….ठहरो!’ कहकर पुजारी भीतर गया, लौटा तो हाथ में बाल्टी थी. किसान कुछ समझे, उससे पहले ही वह बाल्टी लेकर दूध दुहने बैठ गया.’
किसान समझ नहीं पाया, यह पुजारी बड़ा व्यापारी या वह व्यापारी जिसने मोटा ब्याज तय करने के बाद गाय उधार दी थी.
आधुनिक लोककथा-सात/तानाशाह की खांसी
तानाशाह खांसा तो दरबारी चंगू–मंगुओं के कान कान खड़े हो गए—
‘सर! प्रदूषण बहुत बढ़ गया है.’ एक ने कहा तो बाकी उसके स्वर में स्वर मिलाने लगे—
‘सारा प्रदूषण पड़ोसी राज्य में पराली जलाने की वजह से है. वहां अपनी ही सरकार है, लेकिन मुख्यमंत्री कुछ करते ही नहीं हैं.’
‘ऐसी सरकार को तुरंत बेदखल कर देना चाहिए.’ इस बीच तानाशाह की भृकुटि तनी तो दरबारी सकपका गए.
‘वातावरण में ठंड बढ़ती जा रही है. सूरज आलसी हो गया है. उसे बम से उड़ा देना चाहिए.’ थोड़ी देर बाद एक ने कहा.
‘सूरज से बाद में निपटा जाएगा. पहले सिरीमान की ठंड का इंतजाम हो….’
‘महल के पश्चिम में कुछ झोपड़ियां हैं, उनमें आग लगा दी जाए तो वातावरण में गरमी आ जाएगी.’ तानाशाह ने फिर आंखें तरेरीं. दरबारियों की सांस थमने लगी.
‘मूर्ख हो तुम….’ दरबारी चंगू ने दरबारी मंगू को डांटा, ‘आग लगने से धुआं होगा. धुआं हुआ तो प्रदूषण बढ़ेगा….।’
‘फिर तुम्हीं बताओ?’
‘लगता है किसी बीमारी की शामत आई है. वैद्यजी को बुलाकर लाते हैं.’ सुनते ही तानाशाह का चेहरा क्रोध से लाल हो गया. आंखों से खून बरसने लगा.
‘मैं वैद्यजी को बुलाकर लाता हूं.’ चंगू बोला.
‘रुको! मैं भी साथ चलता हूं.’ मंगू ने भी दूर हट जाने में ही भलाई समझी. वे जाने को मुड़े.
‘ठहरो!’ तानाशाह गुस्से से चिल्लाया. चंगू–मंगू की कंपकंपी छूट गई.
‘हरामखोरो! इलाज तो बाद में देखा जाएगा. पहले यह बताओ, तुम खांसे क्यों नहीं थे?’ कुपित तानाशाह ने बंदूक तान ली.
चंगू–मंगू खांसने लगे. तब तक खांसते रहे, जब तक बेहोश होकर गिर नहीं गए.
आधुनिक लोककथा-आठ/विडंबना
पृथ्वी पर ऊंची–ऊंची मूर्तियां बनती देख दुनिया–भर के भगवानों में चिंता व्याप गई. सारे भगवान दो हिस्सों में बंट गए. पहले वे जिनकी मूर्तियां लग चुकी थीं या लगने वाली थीं. दूसरे वे जिन्हें मूर्तियां नहीं लगने का मलाल था.
‘यह तो आस्था की बात है.’ एक भगवान जिसे अपनी विशालकाय मूर्ति लगने की खुशी थी, ने कहा.
‘तुम तो कहोगे ही.’ दूसरा भगवान जिसे मूर्ति न लगने का अफसोस था, बोला—‘यह तो सोचो. इतनी ऊंची मूर्ति के आगे कभी गए तो बौने दिखाई पड़ोगे. तब कौन तुम्हें भगवान मानेगा!’
‘मैं धरती पर न कभी गया, न ही जाऊंगा.’ मूर्तिवाला भगवान बोला.
‘तभी तो, उस मूर्ति में तुम कितने घोंचू लग रहे थे. जाकर अपने भक्तों को बताओ कि तुम वैसे बिलकुल नहीं हो, जैसे मूर्ति में दिखते हो.’
‘जिन भक्तों ने मूर्ति बनाई है. वे मुझे पूज रहे हैं—यही पर्याप्त है.’
‘जिसे वे पूज रहे हैं, वह कैसा है? क्या है? यह जानना भी तो जरूरी है.’
‘क्यों नाहक परेशान हो रहे हो. जाकर अपना काम देखो; और मुझे भी आराम करने दो.’ इतना कहकर मूर्तिवाला भगवान मुंह पर चादर डाल लेट गया. दूसरा भगवान खिन्न होकर वहां से चला आया.
अपनी मूर्ति लगवाने की जुगत में सोचता–सोचता वह धरती पर पहुंच गया. वहां भव्य मंदिर देखकर उसकी आंखें चौंधियां गईं. मंदिर में दर्जनों मूर्तियां थीं. सिर्फ उसी की मूर्ति नदारद थी. पुजारी को थोड़ी–सी फुर्सत मिली तो उसने कहा, ‘करोड़ों रुपये खर्च करके जिस भगवान की मूर्ति तुमने लगवाई है, वह उसकी असल सूरत से बिलकुल नहीं मिलती.’
‘मूर्ति का होना ही भक्तों के लिए पर्याप्त है…..पूजा का समय है, आगे बढ़ो.’ पुजारी बगैर गर्दन उठाए बोला.
‘यह तो श्रद्धालुओं के साथ धोखा हुआ. अगर वे सच जान गए तो?’
पुजारी हंसने लगा. भगवान की कुछ समझ में नहीं आया. पुजारी श्रद्धालुओं में व्यस्त हो चुका था. हारकर वह बाहर निकल आया. मंदिर परिसर में श्रद्धालु कतार लगाए खड़े थे. अनमन्यस्क–सा भगवान आगे बढ़ ही रहा था कि एक पेड़ के नीचे अपनी मैली–कुचैली, पुरानी, उपेक्षित पड़ी मूर्ति देखकर ठिठक गया. किसी श्रद्धालु का उस ओर ध्यान न था. अचानक उसे न जाने क्या सूझी कि आसपास के वृक्षों से कुछ फूल और पत्तियां तोड़कर उस मूर्ति पर चढ़ा दिए. फिर हाथ जोड़कर अराधना करने लगा. तभी श्रद्धालुओं की कतार में से आवाज आई—‘उसे छोड़, इस कतार में लग जाओ. आजकल उसका ट्रेंड नहीं है.’
आवाज पर ध्यान दिए बिना उस भगवान ने मजे–मजे में पूजा का नाटक किया और वहां से हट गया. थोड़ी दूर जाने के बाद उसने मुड़कर देखा, कतार में से कुछ श्रद्धालु निकलकर उसकी मूर्ति के आगे खड़े थे.
‘आखिर धरती पर आना बेकार नहीं हुआ.’ भगवान ने मन ही मन सोचा और मुस्कराते हुए आगे बढ़ गया.