मुंह अंधेरे चक्की की घरघराहट सुन ईश्वर की नींद उचट गई—
‘ऊंह! दिन–भर घंटों की आवाज और रात को चक्की की घर्र–घर्र, लोग सोने तक ही नहीं देते, लगता है पागल हो जाऊंगा!’ ईश्वर बड़बड़ाया और उठकर आवाज की दिशा में बढ़ गया. एक झोपड़ी के आगे वह रुका. दरवाजा खड़खड़ाने जा रहा था कि बांस की टटिया हाथ लगते पीछे खिसक गई. सामने बुढ़िया थी. चक्की चलाती हुई. बराबर में झिंगली खाट पर एक आदमी दुनिया–जहान से बेखबर सो रहा था. बुढ़िया के बाल थे सन जितने सफेद. दिखने में वह हड्डियों का तांता नजर आती थी. यह देख ईश्वर ने कहा—
‘माई, इस उम्र में तुम्हें चक्की न पीसनी पड़े, इसलिए वरदान देता हूं कि तुम्हारा कनस्तर आटे से हमेशा भरा रहे.’
‘मुझे कोई वरदान नहीं चाहिए.’ बुढ़िया ने बेरुखी दिखाई.
‘माई! अपने लिए न सही, मेरे लिए ले लो. दिन–भर मंदिर के घंटे की आवाज और रात को चक्की की घर–घर. नींद पूरी नहीं हो पाती.’ ईश्वर अपने अहं से एक पायदान नीचे उतरा.
‘परे हट! बड़ा आया वरदान देने वाला. मेरे आदमी को देख, दिन–भर लोहे के कारखाने में कानफोड़ू आवाज के बीच काम करता और रात को गहरी नींद सोता है. तू दूसरों के श्रम पर पलता और अपने ही जैसे परजीवियों को संरक्षण देता है. मंदिर की चारदीवारी से निकलकर एक दिन मेरे आदमी के साथ कारखाने में काम करके देख. चक्की की घरघराहट तो क्या, बादलों की गड़गड़ के बीच भी गहरी नींद आएगी.
ईश्वर से कुछ बोलते न बना. वह अपना–सा मुंह लेकर लौट गया.
ओमप्रकाश कश्यप
achha laga padh k bahut bhadiya …