खबर है कि अन्ना हजारे के नेतृत्व में चलाया जा रहा आंदोलन अपनी चमक खो रहा है. जिस आंदोलन ने सरकार को संसद में बहस करवाने के लिए विवश कर दिया उसकी चमक मात्र चार महीने में फीकी पड़ जाना किन्हीं अर्थों में चिंताजनक भी है. कुछ विद्वान आंदोलन की असफलता का कारण इसकी मध्यवर्ग पर अतिरिक्त निर्भरता मानते हैं. परंतु मेरे विचार में मुद्दा यह नहीं है कि अन्ना के आंदोलन से केवल मध्यवर्ग जुड़ा है. दुनिया में जितने भी कामयाब आंदोलन हुए हैं, विशेषकर औद्योगिकीकरण के उभार के बाद, सभी की सफलता में मध्यवर्ग की प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष भूमिका रही है. तथापि आंदोलन की सफलता के लिए आवश्यक है कि मध्यवर्ग खुद को उत्प्रेरक शक्ति से अधिक न समझे. जनशक्ति की महत्ता को समझते हुए वह उसको साथ लेकर आगे बढ़े. इंग्लेंड में ‘चार्टिस्ट‘ आंदोलन से भी लाखों की संख्या में मध्यवर्ग जुड़ा था. वह आंदोलन वर्षों तक चलने के बाद यदि नाकाम रहा अथवा एक समय में अपने समर्थन में तीन करोड़ हस्ताक्षर जुटा लेने के बाद भी उस आंदोलन की सफलता सीमित रही, तो इसलिए कि चार्टिस्ट आंदोलन के कर्णधार आम जनता के बीच अपनी पैठ बनाने में नाकाम रहे थे.
अन्ना हजारे के आंदोलन की कमजोरी है कि उसके कार्यकर्ता अपने आंदोलन का उपयोग दबाव की राजनीति के रूप में करना चाहते हैं. उनका पूरा का पूरा चरित्र प्रतिक्रियावादी है. उसके पीछे न तो कोई सैद्धांतिक निष्ठा है, न ही बड़ा दर्शन, न बड़ा सोच. भ्रष्टाचार का समाधान सिर्फ कानून बना देने से नहीं हो सकता. उसके लिए समाज में पर्याप्त नागरिकताबोध जरूरी है. नैतिकता के प्रति अटूट आस्था और गहन आत्मविश्वास के बिना भी इस दानव से मुक्ति असंभव है. टीम अन्ना से जुड़े लोग चूंकि स्वयं नैतिकता की कसौटी पर खुद को कहीं नहीं पाते, अत: इस कमी के पूर्ति के लिए वे दबाव की राजनीति अपनाते हैं. इससे यथास्थिति की पोषक शक्तियों को उनकी ओर उंगली उठाने का अवसर मिल जाता है.
स्वयं अन्ना की भी सीमाएं हैं. गांधीवादी तरीके से आंदोलन का संचालन एवं नेतृत्व करने के लिए जिस प्रखर मेधा की आवश्यकता पड़ती है, वह उनमें कहीं नजर नहीं आती. गांधीजी पढ़े—लिखे थे. अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए उनके पास लोगों के दिल में उतर जाने वाली लेखन—कला थी. तार्किक जबाव देने के लिए मौलिक दर्शन था. जो उस समय के सभी महत्त्वपूर्ण विचारों के समन्वय से बना था. वे स्वयं समाचारपत्र निकालते थे, जिनके माध्यम से वे लोगों से जुड़े रहते थे. कोई भी आंदोलन आरंभ करने से पहले अपने लेखन के माध्यम से उसके लिए जनमानस तैयार कर लेते थे. उस समय अधिकांश कांग्रेसी नेता समाज के उच्च एवं मध्यम वर्ग से आए थे, इसके बावजूद गांधीजी द्वारा संचालित आंदोलन मध्यवर्ग पर आश्रित नहीं थे. आमजन के मनस पर गांधीजी की पैठ थी. उसी के दम पर गांधीजी के कार्यक्रम उनकी अपनी प्रेरणाओं से जन्मते और उन्हीं के निर्देशानुसार चलकर संपन्न भी होते थे. अन्ना हजारे के पास इस कला का अभाव है. न उनका अहिंसा में उतना विश्वास है, न पर्याप्त नैतिक बल. जिसके अभाव में वे कभी–कभी हिंसा की शरण लेते नजर आते हैं. जिस लकदक खादी के भरोसे वे स्वयं को ठेठ गांधीवादी सिद्ध करने का प्रयास करते हैं, आमजन के बीच वह अपनी प्रासंगिकता वर्षों पहले खो चुकी है.
अरविंद केजरीवाल, किरन बेदी और अन्ना के अन्य सहयोगियों की ताकत एनजीओ तथा मध्य वर्ग है. जो आपस में फेसबुक और टिवटर के माध्यम से संवाद करते हैं. इन आधुनिक माध्यमों की अपनी सीमा है. ये बाजार द्वारा अपने स्वार्थ के लिए बनाए गए हैं. जिसकी निगाह में मानवमात्र एक उपभोक्ता है. ऐसे माध्यम से लोगों की भीड़ तो जुटाई जा सकती है, नारेबाज लोग भी जमा किए जा सकते है, परंतु लंबे समय तक साथ देने वाला, परिवर्तनकामी जन बल इससे जुटा पाना संभव नहीं है. स्वयं टीम अन्ना भी नहीं चाहती. उसे भी जनता की ताकत से अधिक कानून पर भरोसा है. उनके निर्देशन में बना जनलोकपाल का प्रस्तावित मसौदा संविधान की मूल भावना से ही खिलबाड़ करता है. अपने प्रतिक्रियावादी चरित्र के कारण ही रामलीला मैदान में नेताओं को कोसने वाले केजरीवाल बड़ी बेशर्मी से आंदोलन की समाप्ति पर उनसे माफी मांग रहे होते हैं.
इसमें विदेशी पूंजी की भी भूमिका है. लोककल्याण के नाम पर गैर सरकारी उद्यम विदेशों से जिस प्रकार अनुदान बटोरते हैं, उसका बड़ा हिस्सा ये आत्मकल्याण के लिए खर्च करते हैं. वरना केजरीवाल को बताना चाहिए कि जनसूचना अधिकार अधिनियम, जिसके लिए आंदोलनरत रही उनकी संस्था ’परिवर्तन’ ने इस आंदोलन को ठंडे बस्ते में क्यों डाल रखा है. क्या इस आंदोलन को शहरी सीमाओं से परे जन—जन तक पहुंचाने के लिए ऐसे ही बड़े आंदोलन की आवश्यकता नहीं है? सरकारी कार्यालयों के भ्रष्टाचार जितना ही अहम मुद्दा जमीन अधिग्रहण का भी है. जिसमें नेता, पूंजीपति, कारपोरेट जगत और दलाल मिलकर किसानों को उनकी भूमि से बेदखल कर रहे हैं, टीम अन्ना उस ओर भी आंदोलन नहीं करने जा रही. शायद इस डर से कि इससे कारपोरेट जगत और वे पूंजीपति नाराज हो जाएंगे जिनसे उनकी संस्थाएं प्रतिवर्ष लाखों का चंदा बटोरती हैं. ऐसे स्वार्थपरता के आधार पर चलाए जा रहे आंदोलन को तो एक न एक दिन अवसान की ओर बढ़ना ही है. लेकिन जनलोकपाल बिल अथवा किसी भी अन्य जनांदोलन का कमजोर पड़ना लोकतंत्र के हित में नहीं है. इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि अन्ना और उनके सहयोगी क्षणिक सफलताओं से अधिक अपनी असफलताओं से सबक लेंगे और उन कारणों पर विचार करते हुए जो उनके आंदोलन के लिए नुकसान पहुंचा रहे हैं, समाधान का समुचित उपाय खोज निकालेंगे. लोकतंत्र की कामयाबी के लिए जनांदोलनों की चमक बने रहना बेहद जरूरी है.
ओमप्रकाश कश्यप
लोकतंत्र की कामयाबी के लिए जनांदोलनों की चमक बने रहना बेहद जरूरी है….
बेहतर…