धारावाहिक उपन्यास
समस्याएं चुनौती ही नहीं बनतीं, आदमी को जीना भी सिखाती हैं.
कई दिनों की अतृप्त आत्मा….गर्मागरम भोजन. बड़ीम्मा का स्नेह–सत्कार. भटकाव के बाद कुछ देर का आराम. जिंदगी बहुरंगी होती है. पर उस क्षण दुनिया की सभी रंगीनियां उस भोजन में विराजमान थीं. शायद इसलिए कि कई दिन के अंधकार के बाद मुझे वे रंग देखने को मिले थे. अपने छोटे से जीवन में मैंने अनेक सपने देखे थे….उनमें से कितने फले—बता नहीं सकता. पर वह शायद ऐसा सपना था जो सबसे जल्दी तथा उम्मीद से बहुत पहले फला था. भूख जो कुछ देर पहले तक मरखनी भैंस की तरह वार पर वार किए जा रही थी, अब वह गोद में बैठी पालतू मैना–सी सम्मोहक बन चुकी थी. लेकिन खाना खाते समय वह भूख भी मेरी लाडली थी. बड़ीम्मा के ममत्व को पूरी तरह आत्मसात् करने के लिए ऐसी ही मरखनी भूख कारगर थी.
अपनी सुरसा–सम भूख को शांत करने के लिए उस दिन मैंने कितना भोजन उदरस्थ किया था, यह बता नहीं सकता. पेट भरते ही मेरी दुनिया फिर मेरे भीतर समा गई. मां के न होने के एहसास को लेकर बाकी सब बातें धीरे–धीरे स्मृति से लुप्त हाने लगीं. वहां से उठा तो देह में समाई थकान नींद बनकर आंखों में उतरने लगी. बाकी भिखारी उठकर अपने–अपने ठिकाने पर पहुंच चुके थे तथा वक्त बिताने के लिए बतकही, गीत–भजन, किस्सा, कहानी, नोंक–झोंक तथा गाली–गलौंच में हिस्सेदारी कर रहे थे. इधर–उधर कुछ आदमी नींद में बेसुध पड़े थे. उनमें बड़ी संख्या उन मजदूरों की थी, जिन्हें सुबह मुंह–अंधेरे काम पर निकलना पड़ता था. उनमें से दो–चार रिक्शा चालक भी थे. खानाबदोश जिंदगी जीने वाले. दिन के समय वे किराये पर लेकर रिक्शा खींचते. पसीना बहाते. थकान और टूटन के बाद नींद अच्छी आए इसके लिए शाम को किसी न किसी नशे की शरणागत होते. नशा उनका शौक बन चुका था, जिसे वे मजबूरी का नाम देकर निभाते चले आ रहे थे.
सलीम मुझे लेकर यार्ड के उत्तरी कोने की ओर बढ़ गया. उस दिशा में हवा अच्छी आ रही थी. फर्श भी साफ–सुथरा था. मैं नंगी जमीन पर लेट गया. ऊपर सितारे बारात सजाए हुए थे. लेटते समय मन शांत था. बापू आएगा या नहीं, इससे कम से कम उस समय मैं निश्चिंत था. सलीम बातें बना रहा था. जिनका कोई सिर था न पैर. मैं उसके बारे में जानना चाहता था. कहीं वह भी मेरी तरह ही तो….काश! ऐसा न हो. क्योंकि जिन हादसों से मेरा जीवन गुजरा था, मैं नहीं चाहता था कि उनसे किसी दुश्मन का भी सामना हो. सलीम का तो हरगिज नहीं. इसलिए कि उसी ने संकट के समय बांह थामकर मुझे सहारा दिया था. मुझे फिर जिंदगी से जोड़ा था.
‘कौंसा कैसी लगी तुझे?’ अनायास, सलीम ने ऐसा सवाल किया जिसकी मुझे जरा भी उम्मीद नहीं थी. झुग्गियों में बच्चे हालांकि उम्र से पहले ही जवान हो जाते हैं. परंतु मां के अनुशासन और घर की तंग हालत ने मुझे कभी भी अपने पंख फैलाने और उड़ने का मौका नहीं दिया था. हालांकि इससे पहले तक मुझे भरोसा तक नहीं था. जो हो सलीम के उस सवाल का कोई ढंग का जवाब मुझसे न बन पाया. जैसे–तैसे सिर्फ ‘अच्छी है’ कहकर, चुप्पी साध ली. हालांकि कौंसा ने मेरे मन पर जो प्रभाव छोड़ा था, वह उससे पहले तक कोई लड़की नहीं छोड़ पाई थी.
‘सिर्फ अच्छी नहीं….बहुत ज्यादा अच्छी है वह, क्यों?’ सलीम लगभग गुणगान करने लगा था, ‘बेचारी ने बहुत ज्यादा कष्ट उठाए हैं.’
‘हूं.’ मैंने कहा. फिर सहसा कौंसा का ध्यान हो आया. कंधे पर भारी–भरकम बोझा लटकाए….कबाड़ बीनने वाली वह लड़की. उसकी बड़ी–बड़ी आंखें और चेहरे पर छायी मासूमियत किसी को भी अपना बना सकती थी. हालांकि रूप–सौंदर्य की कोई समझ न थी. लेकिन कौंसा के बारे में जब से सुना कि वह अपने पिता की सेवा में रात–दिन भागदौड़ करती है, वह मुझे दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की लगने लगी थी. सलीम न जाने आगे क्या–क्या कहता चला गया. लेकिन मेरा ध्यान कौंसा की ओर लगा तो फिर वही देर तक दिलोदिमाग पर छायी रही.
उसी समय रेलगाड़ी की सीटी ने आसमान गुंजा दिया.
‘रात की आखिरी गाड़ी भी आ गई. क्या बापू आया होगा?’ मैंने अपने आप से प्रश्न किया. अगले ही पल निराशा जोर पकड़ने लगी—
‘बापू को आना होता तो जाता ही क्यों?’ मन में सवाल उभर आया. जिसमें दम था. बापू जानबूझकर मुझे छोड़कर गया है. जीवन में वह हमेशा अपनी जिम्मेदारियों से भागता रहा है. उसमें इतना धैर्य ही नहीं कि जिम्मेदारियों को लेकर कोई फैसला कर सके. उनके निस्तारण के लिए कोई योजना बना सके. इसलिए हमेशा उनसे भागता रहता है. ऐसा आदमी अपनी ही नजर का सामना कर पाने में असमर्थ रहता है. इसलिए वह दूसरों के साथ–साथ खुद से भी भागता रहता है.
‘बापू नहीं आया तो मैं क्या करूंगा? कहां रहूंगा?’ एक शाश्वत प्रश्न मेरे सामने खड़ा हो गया.
‘सिवाय मजदूरी के और भला क्या कर सकता हूं मैं?’ खुद से सवाल किया मैंने.
‘इतनी कम उम्र में भला मजदूरी पर भी कौन रखेगा?’ दूसरे कोने से आवाज आई.
‘फिर कबाड़ी का काम?’
‘चलेगा, वह बिना हींग–फिटकरी के शुरू हो सकता है. पर वैसा करने से कौंसा को घाटा होगा. इस रेलवे स्टेशन पर इतना कबाड़ तो है नहीं कि एक साथ दो–दो का गुजारा हो सके.’
‘रेलवे स्टेशन ही क्यों, पूरा कस्बा पड़ा है….’
‘कस्बे में और कबाड़ी भी तो होंगे. एक अजनबी को भला वे क्यों जमीन देने लगे.’
‘तो क्या बूट पालिश करनी चाहिए?’
‘उसके लिए भी कम से कम पचास–साठ रुपयों की जरूरत पड़ेगी. इतने रुपये भला कहां से आएंगे.’ मैं भविष्य को लेकर चिंतित था. उबरने का एक ही रास्ता था. किसी भी भांति कमाई का जरिया हो जाए. सहसा निगाह भिखारियों पर पड़ी जो चरस और गाजे के नशे में धुत्त थे. अपने आप में मग्न. दुनिया–समाज की चिंताओं से मुक्त. उसी के साथ मन आया कि क्यों न मैं भी भीख मांगने लगूं. ज्यादा नहीं बस दो–चार दिनों की बात है. बापू के लौट आने के बाद तो….’ और तब सहसा लगा कि मुंह पर किसी ने तमाचा दे मारा हो.
‘पुरु, सुना है कि तू भीख का अन्न खाएगा? बहुत ही शर्म की बात है. इससे तो अच्छा है कि तू मर गया होता. मैं भी तसल्ली कर लेती.’
मां के ये शब्द वर्षों से मेरा पीछा करते हुए आ रहे थे. वही तमाचा बनकर एकाएक मेरे मुंह पर पड़े थे. मुझे याद है कि जिस दिन मां ने ये कड़बे बोल कहे थे, उस दिन कुछ देर पहले ही मैं मतंग चाचा की झोपड़ी में चला गया था. अकेले रहते थे वह. आगे नाथ न पीछे पगहा, जैसी हालत थी उनकी. कुछ दिन नगर निगम में नौकरी कर चुके थे. मगर अपने आप में रमे रहने की आदत के कारण नौकरी उन्हें भारी पड़ने लगी. यूं तो विवाह किया था और उनके बच्चे भी थे. लेकिन वे सब गांव में रहते थे. जब नौकरी पर थे तो पत्नी को बिना नागा मनीआर्डर से रुपये भेज देते थे. बच्चे बड़े हुए तो दो तिहाई वेतन गांव भेजने लगे. परिणाम यह हुआ कि बच्चे पढ़–लिखकर अपने धंधे पर जा लगे. गांव की परपंरा के अनुसार मतंग चाचा ने बच्चों का विवाह भी कम उम्र में कर उस दायित्व से भी मुक्ति पा ली. अब पत्नी अपने परिवार और बच्चों में मग्न है, और मतंग चाचा भीख के सहारे अपना पेट भरते हैं, हर महीने रकम बचाकर गांव भेजते रहते हैं. गांव में सभी जानते हैं कि वे अब भी कहीं पर नौकरी करते हैं.
हैरानी की बात है कि मतंग चाचा भीख मांगने को कभी अच्छा काम नहीं माना. अपनी गंदी आदत के लिए वे आलस और जीभ के चटोरेपन को जिम्मेदार मानते हैं. मां ने ही बताया था, बच्चों के विवाह के बाद उन्होंने घर से संबंध लगभग तोड़ ही लिया. गांव को मनीआर्डर भेजना भी बंद कर दिया. अपनी नौकरी के मामले में भी वे बहुत लापरवाह हो गए थे. नौकरी पर जाने के बजाय कई–कई दिन तक घर पर पड़े रहना. सरकार तो उनसे तंग आई ही, वे स्वयं भी दूसरों की बात सुनकर तंग आ चुके थे.
गांव में भरा–पूरा घर था, इसलिए नौकरी पर रहते हुए शहर में घर बनाने का विचार कभी बना नहीं. बाद में आलस बढ़ा तो कटौती के बाद मिले वेतन से घर का किराया निकालना भी कठिन हो गया. उन्हीं दिनों बापूधाम विकसित होने लगा था. उन्होंने किराये का घर छोड़ वहीं अपनी झुग्गी डाल ली. यहां आकर उनका आलस बढ़ता ही गया. आखिर नौकरी छोड़ दी. मतंग चाचा को जैसे सुकून ही मिला. नौकरी छोड़ते समय जो रुपया मिला था, वह कुछ ही महीनों में चटोरी जीभ की भंेट चढ़ गया. कुछ इधर–उधर के काम किये….परंतु मन को शांति न मिली. जिम्मेदारी से बचना चहते थे. लापरवाही, आलस और बेरोजगारी ने असर दिखाया. आखिर बीमार पड़ गए. देखभाल के अभाव में रोग बढ़ता ही गया.
एक दिन बेहोशी की हालत में किसी ने उन्हें अस्पताल पहुंचा दिया. वहां कई दिन लावारिस की तरह पड़े रहे. निकले तो काफी कमजोर थे. चलना–फिरना भी मुश्किल. उस समय पेट की भूख मिटाने के लिए कटोरा हाथ में लिया था. फिर तो उसका चस्का पड़ गया. दिल के भले थे और मददगार भी. स्वार्थ से बहुत दूर. लेकिन मां उनके आलसी स्वभाव और लापरवाही के कारण उनसे हमेशा नफरत करती रही. बाद में जब उन्होंने पेट भरने के लिए भीख मांगने लगे तो मां की नफरत और भी सवाई हो गई.
एक शाम का किस्सा और याद आ रहा है. मां शाम के भोजन के लिए दाल बीन रही थी. पतीली अंगीठी पर खदबदा रही थी. जिसमें पानी उबल रहा था. दाल को देख बापू ने मुंह बिचकाया. मां समझ गई. ऐसा अक्सर हो जाता था. बापू की जब भी अच्छी कमाई हो जाती या कहीं से पीने को एकाध पव्वा हाथ लग जाता तो उसके रंग–ढंग निराले ही होते थे. आते ही उसने मुझे आवाज दी. मतंग चाचा की झुग्गी से मनभावन गंध आ रही थी.
‘सुन रे…. तुझे मतंग चाचा बुला रहे हैं!’ आयु में लगभग डेढ़ गुने होने के कारण बापू भी उन्हें चाचा ही कहता था.
बापू मतंग चाचा के घर होकर आया था. मैं वहां पहुंचा तो एक कटोरी में मछली की तरकारी लिए वह मेरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे. मैं खुशी–खुशी कटोरा उठा लाया. बापू ने मछली के दो टुकड़े और थोड़ी तरी मेरी कटोरी में उंडेल दी. मेरे छोटे–भाई बहन भी तब तक वहां पहुंच चुके थे और वे उम्मीद–भरी निगाह से हम दोनों की ओर देख रहे थे. बापू ने बेला को बुलाया भी. पर न जानेे किस डर से वह दूर खड़ी देखती रही. मैं तरकारी चखने ही जा रहा था कि तभी पैरों की धमक से ध्यान बंटा. हाथ हवा में ही झूलता रह गया. मैं कुछ समझ पाऊं उससे पहले ही मां का तमाचा मेरे गाल पर था. लाल–पीले तारे मेरी आंखों में झिलमिलाने लगे.
‘हरामखोर! अभी से दूसरों के अन्न पर जिएगा तो आगे क्या करेगा.’ मां ने गुस्से में कहा था. मैंने देखा—वह गुस्से से थरथरा रही थी. सब्जी तो वह नाली में फेंक ही चुकी थी. मुझे मां पर गुस्सा आया. पर गाल सहलाता हुआ मैं वहां से चला गया.
वही तमाचा आज फिर मेरे गालों पर पड़ा था. मां हालांकि अब इस दुनिया में नहीं रही. पर उसका एहसास अपना कर्तव्य निभा रहा था. उसी क्षण मैंने फैसला किया कि भीख मांगने जैसे काम के बारे में सोचूंगा भी नहीं. कुछ दिन बापू की प्रतीक्षा करूंगा. यदि वह नहीं आया तो कोई छोटा–मोटा काम कर लूंगा. कौंसा के अलावा कई और बच्चों को भी मैं प्लेटफार्म पर काम करते हुए देख चुका था. छोटे–छोटे पांच–छह साल के….ढोलक और मंजीरा लेकर प्लेटफार्म पर कलाबाजियां खाते, दुकान पर बर्तन रगड़ते हुए ….अपना और अपने परिवार का पेट भरने वाले गरीब–मासूम बच्चे. इससे मेरा हौसला बढ़ा था. मैं अकेला रहने की ठान चुका था.
इसके बाद गहरी नींद तो आनी ही थी.
गहरी नींद स्वर्ग की सैरगाह तक ले जाती है.
अगली सुबह आंखें खुलीं तो बड़ीम्मा को खुद पर झुका हुआ पाया. आंखें भी अपने आप कहां खुली थीं. लगा था जैसे कोई मेरे बालों को हौले–हौले सहला रहा हो. और लगा कि सपनों में देवमाता आकर मुझे दिन सुधरने का वरदान दे रही है. यह भी लगा कि लोरियों की तरह शहद से मीठे शब्द मेरे कानों में घुलते आ रहे हैं. बापू ने कभी मुझे अपनेपन से बेटा नहीं कहा था. मां मेरे बहाने अपने भगवान को ही टेरती रहती थी. उसके लिए मैं महज ‘परमात्मा’ था. हां, कभी–कभी जब मैं उसकी गोद में लेटा होता तो वह मीठी आवाज में गुनगुनाने लगती थी. उसकी आवाज में इतनी मिठास होती कि मैं अपनी सुध–बुध खो बैठता था.
बड़ीम्मा की आवाज कुछ मोटी, शरीर भारी–भरकम था. पर उसमें वात्सल्य का प्राचुर्य है—ऐसा मुझे अनुभव हुआ था. पिछले कई दिनों से मैं उसी अनुभूति के लिए तड़फ रहा था. इसलिए उसे सुनते–महसूसते हुए मुझे प्रफुल्लित होना ही था. अपना वजन संभाल न पाने के कारण बड़ीम्मा चबूतरे का सहारा लिए खड़ी थीं. झुर्रियों से भरपूर उसका चेहरा मद्धिम रोशनी में कुछ डरावना लग रहा था. पर आंखों में भरा वात्सल्य मन की आश्वस्ति के लिए पर्याप्त था. मैं फौरन बैठ गया. मैंने बगल में टटोलकर देखा. सलीम वहां नहीं था. यार्ड में भी इक्का–दुक्का लोग ही बाकी थे. सभी अपने–अपने धंधे पर जा चुके थे. पांच–छह गेरुए वस्त्रधारियों को छोड़कर, जिनका धंधा धर्म की दलाली पर टिका था.
उनकी मंडली बाकी भिखारियों से अलग थी. उन्होंने अपना भोजन अलग पकाया था. उनकी रसोई से मीट पकाए जाने की आवाज देर तक आती रही थी. खाना खाने के बाद उन्होंने चरस और गांजा का दम लगाया था. उसके बाद जहां जी आया, पड़ रहे. दूसरे भिखारियों की तरह. अब धंधे पर जाने से पहले उसके उपयुक्त वस्त्राभरण भी आवश्यकता को देखते हुए वे सभी बन–संवर रहे थे. शृंगार किया जा रहा था. बड़ीम्मा के चूल्हे की राख का उपयोग बर्तन मलने और शरीर पर भस्म की तरह रगड़ने के लिए किया जा रहा था. माथे पर पीली और मुल्तानी मिट्टी का लेप चढ़ाकर चोले को वानप्रस्थी रूप दिया जा रहा था.
‘नींद तो अच्छी आई ना बेटा?’ बड़ीम्मा के सवाल ने मेरा ध्यान भंग किया.
‘जी.’ मैंने कहा.
‘एक बात पूंछू बेटा? अगर तू सच कहने का वचन दे तो?’ बड़ीम्मा का सवाल उसे कुछ गलत लगा. पर मैंने प्रतिक्रिया व्यक्त किए बिना ही अपनी निगाह बड़ीम्मा के चेहरे पर टिकाए रखी—
‘बेटा, तू कहीं घर से भागकर तो नहीं आया?’ एकदम अलग–अप्रत्याशित आपमानिक और उचित–सा सवाल किया बड़ीम्मा ने. मैं झुंझला पड़ा. परंतु मन में कहीं बड़ीम्मा के मातृत्व के प्रति सम्मान का भाव भी था. अतएव जी में यह भी आया कि बीते दिन जिन झंझावातों से मुझे गुजरना पड़ा उनके बारे में बड़ीम्मा को राई–रत्ती बता दूं? फिर लगा कि बापू की आने तक ऐसा करना सरासर गलत होगा. चुप्पी साध लेना बड़ीम्मा की सहृदयता का अपमान. इसलिए सच का सहारा लेते हुए मैंने इंकार में गर्दन हिला दी.
‘फिर ठीक है….’ बड़ीम्मा की आवाज में प्यार और भी घुल–मिल गया. मानो बिना कहे ही मेरे कष्टों को जान चुकी हो. बोली, ‘सब ठीक हो जाएगा. उठकर हाथ–मंुह धोले, मैं चाय बनाती हूं. जब तक मैं हूं, किसी भी बात की फिक्र मत करना. भले ही मेरा शरीर छीज चुका है. चैका–चूल्हा पूरी तरह संवरता नहीं. पर तू रहा तो मदद ही करेगा. मुझे भी सहारा मिल जाएगा. यहां के लोगों की बातांे पर भी मत जाना. वे भले मुंहफट और कंगाल हों. पर दिल के भले और पाक–साफ हैं. तेरे लिए प्यार और रोटी की यहां कोई कमी नहीं होगी.’
इतना बड़ा आश्वासन एक मां ही अपने बेटे को दे सकती थी. मुझे लगा कि बड़ीम्मा की मूरत मेरे मन में बसी मां की छवि का स्थान लेती जा रही है. यह विचार अच्छा था, अन्य परिस्थितियों में मैं इसका स्वागत ही करता. लेकिन उस समय ऐसे विचार से ही मैं चैंक गया. वस्तुतः यह अधिकार मैं किसी को भी नहीं दे सकता था. मां का चेहरा मेरी आंखों में था. बड़ीम्मा शायद कुछ और भी पूछना चाहती थीं. लेकिन अपने सवाल को कुछ समय के लिए टालकर चूल्हे की ओर बढ़ गई.
उस दिन मुझे यह भी पता चला कि भिखारियों के लिए शाम का भोजन ही खास होता है. दिन के भोजन का उनका कोई ठिकाना नहीं होता. जहां जब जैसा और जितना मिला—भूख के आगे चारा डाल दिया. भोजन एक तरह से भूख को बस बहलाना–भर होता है. शाम का खाना होता है जीवन को उत्सवमय जीना. मैं ना तो खुद को बहलाना चाहता था. ना उधार की रंगीनियों के सहारे जीना. बापू के आने की क्षीण–सी आस अब भी बाकी थी. इसलिए हाथ–मुंह धोने के बहाने वहां से प्लेटफार्म की ओर बढ़ गया. उस समय तक सूरज नहीं निकला था. यह देखकर मैं हैरान रह गया कि कौंसा मुझसे पहले ही प्लेटफार्म पर पहुंच चुकी थी तथा पटरियों पर झुकी हुई कचरा बीन रही थी.
मेरे पास कोई दूसरा काम तो था नहीं. बस मामूली–सी आस थी बापू के लौट आने की. इंतजार के लिए प्लेटफार्म पर टिके रहना जरूरी था. इसलिए मैं भी कौंसा के पीछे पटरियों पर पहुंचकर कचरा बटोरने लगा. कौंसा की निगाह मुझ पर पड़ी तो वह ठिठक गई.
‘आज लगता है तू कुछ जल्दी आ गई है?’ मैंने उसे उलझाने की कोशिश की. और सचमुच वह चुप हो गई.
‘हां!’ कुछ देर तक सोचने के बाद उसने जवाब दिया, ‘आज बापू को लेकर डाॅक्टर के पास जाना है. मैंने सोचा कि उससे पहले ही आज का काम निपटा लूं.’
‘क्या कोई और नहीं है तेरे घर में?’ मैंने प्रश्न झाड़ा, हालांकि इस बात पर सलीम मुझे सबकुछ बता चुका था. परंतु कौंसा से बातचीत का कोई नया बहाना मैं एकाएक नहीं सोच पाया था. मेरे प्रश्न पर कौंसा ने मेरी ओर देखा. उसकी आंखों में दुःख का समंदर हिलोरता नजर आया. लेकिन मन की हूक होठों की सीमा में कैद होकर रह गई. और वह बिना कुछ बोले चुपचाप कबाड़ चुनने लगी. मैं भी पटरियों पर झुक गया—
‘अगर तू मेरी मदद करने के लिए ही यह सब कर रहा है तो समझ ले कि मुझे तेरा अहसान बिलकुल नहीं चाहिए.’ कौसा ने कहा. तब तक मैं उसके प्रश्न के लिए खुद को तैयार कर चुका था. इसमें भी उपकार जैसी भावना न होकर सरासर मेरा स्वार्थ था—
‘मैं किसी पर भला क्या अहसान कर सकता हूं. समझ ले कि यह सब अपनी जरूरत के लिए कर रहा हूं. बदले आज अगर तू मुझे कुछ पैसे देगी तो मैं मना नहीं करूंगा.’
‘तो तू क्या समझता है कि जरा से काम के लिए मैं आज भी तुझे उतने ही रुपये दूंगी—आखिर इस काम में बचता ही क्या है. फिर तू मेरे इलाके में कबाड़ बीनेगा तो नुकसान भी मुझे ही उठाना पड़ेगा. इसलिए आज मैं तुझे एक रुपया से ज्यादा नहीं देने वाली. और कल के पैसे भी आज नहीं मिलेंगे, समझा.’ कौंसा सीधे मोलभाव पर उतर आई थी. शायद वह मुझे चिढ़ाना चाहती हो. उसके कहे पर मैंने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की. इस पर वही थोड़ी देर बाद बोली—
‘आजकल के डाक्टरों का भरोसा नहीं. वे पूरे कसाई होते हैं—कसाई. मरीज को मूंडने को हमेशा तैयार. वे न दिन देखते हैं न रात, अमीर देखते हैं न गरीब.’ कौंसा के स्वर में पीड़ा थी. उसके शब्दों में छिपा आक्रोश मेरे दिल में उतर गया था. लगा कि सोलह–सतरह वर्ष की उम्र में ही कौंसा के चेहरे पर पसर आई प्रौढ़ता अनायास नहीं है. उसके पीछे कोई गहरा रहस्य छिपा है. उस रहस्य तक पहुंचने की जिज्ञासा मेरे मन में उमड़ने लगी. मगर प्रकट में वैसी कोई जिज्ञासा मैंने नहीं दिखाई. इतना मैं समझ चुका था कि वह एक स्वाभिमानी लड़की है. किसी अपरिचित के आगे अपनी जिंदगी की पर्तें एकाएक हटाने से रही. क्या सलीम को यह सब मालूम होगा. शायद हो भी. मगर उसके व्यवहार से तो यह जाहिर नहीं होता. हालांकि वह खुद को कौंसा के जितना निकट समझता है, उतना शायद है नहीं. कम से कम कौंसा तो मन से उसके इतने करीब है नहीं.
मेरा अनुमान सच ही निकला. सलीम को कौंसा के बारे में महज इतनी ही जानकारी थी कि वह अल्मोड़ा के किसी गांव में रहती थी. गरीब माता–पिता की इकलौती संतान. पिता को कोढ़ की बीमारी है और उसी का इलाज कराने वह शहर तक आई है. गांव से शहर तक चंद वर्षों की छोटी–सी यह यात्रा, कितने उतार–चढ़ाव, ठोकरें, दुख–कष्ट–पीड़ा–संत्रास–उत्पीड़न, अवसाद–विषाद और झंझावात लिए है, इसे बस वही जानती है. दूसरा कोई नहीं. पहेली यह भी है कि शहर आने के बाद आज तक क्यों वह अपने पिता को अस्पताल नहीं ले गई. जाने क्यों उन्हें घर ही में बंद रखती है. यहां तक कि एक बार अस्पताल के कर्मचारी उसके बापू को इलाज के लिए ले जाने आए थे, तब भी उसने भेजने से इंकार कर दिया था.
कौंसा ने ऐसा क्यों किया, यह एक पहेली थी. सभी जानते हैं कि कौंसा की आर्थिक हालत ऐसी नहीं कि पिता का ढंग से इलाज करा सके. फिर भी उन्हें अस्पताल ले जाने से रोके रखना समझ से बाहर था. मैंने तय किया कि अगली मुलाकात में कौंसा से यह प्रश्न अवश्य ही करूंगा. क्या वह उसका जवाब देगी? इस प्रश्न के आगे मैं निरुत्तर था.
अनेक प्रश्न हैं, जिनका हम उत्तर खोजना चाहते हैं, उनमें से कुछ खास प्रश्न ही ऐसे होते हैं, जो हमारी अकुलाहट में ढल जाते हैं. कौंसा से मेरा कोई संबंध नहीं था. लेकिन अब वह मेरी अकुलाहट का कारण बन चुकी थी.
कहीं उसकी कहानी भी मेरी कहानी जैसी त्रासद तो नहीं!
यही मेरी अकुलाहट का कारण था.
मुझे बापू से बिछुड़े एक सप्ताह से ऊपर हो चुका था. उसके लौटने की उम्मीद अब भी थी. हालांकि वह क्षीण होती जा रही थी. एक बार मेेरे दिमाग मंे आया भी कि वापस बापूधम लौटकर कल्लू, बेला और हरिया के बारे में पता करूं. जाने वे किस हाल में हैं. बापू ने उनकी सुध ली भी होगी या नहीं! किंतु बस्ती में उस रात घूमते सिपाहियों के बूटों की धमक अब भी मेरे दिलो–दिमाग पर चस्पां थी. इस डर से वहां लौटने की तो मेरी हिम्मत ही नहीं हुई. इस बीच प्लेटफार्म पर मुझे इधर–उधर घूमते देखकर एक दुकानदार की निगाह मुझ पर पड़ गई. दोनों वक्त रोटी और प्रतिदिन पांच रुपये नकद के हिसाब से उसने मुझे नौकरी पर रख लिया. काम था झूठे बर्तन साफ करना….ग्राहकों द्वारा इधर–उधर फेंके गए दोने उठाकर टोकरी में डालना, जो मुझे जरा भी पसंद नहीं था. लेकिन मजबूरी ही थी, कोई और काम न होने के कारण उससे लगे रहना. मैं नए काम की तलाश में भी था. सलीम ने इसमें मेरी मदद करने का आश्वासन दिया था.
मैंने बड़ीम्मा के पास जाना कम कर दिया था. पर बड़ीम्मा ने न जाने क्या देखा था मुझमें. डंडे के सहारे खरामा–खरामा प्लेटफार्म पर मेरी खोज–खबर लेने वह सुबह–शाम दोनों वक्त आ जाती थीं. साथ चलकर खाना खाने को कहतीं. मैं प्रायः टाल जाता. एक दिन मालूम पड़ा कि बड़ीम्मा कौंसा पर भी मेहरबान हैं. इसीलिए रोज बचा हुआ खाना लेकर वह उसकी झुग्गी में पहुंच जाती हैं. वहां घंटों उसके पिता से बतियाती रहती हैं. तभी लौटती हैं जब शाम को चूल्हा जलाने का समय हो जाता है. बड़ीम्मा का रोटी लेकर आना कौंसा को पसंद नहीं. पर वह इंकार नहीं कर पाई. छूत के डर से उसके पिता से आकर मिलने वाले लोगांे की संख्या शून्य थी. वे बहुत अकेलापन अनुभव करते थे. कौंसा सोचती, बड़ा कलेजा है बड़ीम्मा का.
जब से बड़ीम्मा का आना शुरू हुआ था तब से उसके बापू चिड़चिड़ापन भी घटता जा रहा था. यही नहीं इलाज के लिए जब तब कुछ न कुछ रुपये भी बड़ीम्मा देती रहती थीं. शायद अकेली बड़ीम्मा ही थीं जो कौंसा के संघर्ष, दुख और तखलीफ के बारे में जानती थीं. जब भी उसका जिक्र होता—दोनों हाथों से अपने कान पकड़कर कहतीं—‘राम–राम! जरा–सी उम्र में ही इस बच्ची ने कितना सहा है….लोगों ने कितना सताया है….इसकी जगह अगर मैं होती तो शायद अपने ही हाथों जान दे देती.’
पहली बार जिस दिन बड़ीम्मा के मुंह से यह सब सुना तभी से कौंसा के बारे में सबकुछ जान लेने की मेरी इच्छा बलवती हो चुकी थी. पर न जाने ऐसा क्या था उसकी कहानी में. मैं ही क्या बड़ों के सामने भी कौंसा को लेकर बड़ीम्मा गंभीर हो जाती थीं. कौंसा के बारे में उन्होंने किसी को शायद ही कुछ बताया हो. ऐसे में एक ग्यारह–बारह वर्ष के बालक के आगे वे अपना मुंह खोलेंगी, जिसको वे अच्छी तरह जानती भी न हांे, यह असंभव जैसा था. खुद मैंने भी अपनी कहानी उन्हें कहां बताई थी. मैं उनके साथ अजनबी की तरह ही तो रह रहा था….जिसकी अपनी दुनिया, रहस्यमय अतीत, दुख, पीड़ा, संघर्ष और व्यथाओं का संसार था.
हैरानी की बात है कि सलीम या बड़ीम्मा किसी ने भी मेरी रामकहानी सुनने की इच्छा व्यक्त नहीं की थी. जैसे कि सब जानते हों. जानते हों कि यहां आने वाले किसी भी प्राणी की सामान्य कहानी हो ही नहीं सकती. कदाचित सभी विशिष्ट कहानी को सुनने के लिए विशिष्ट अवसर की प्रतीक्षा में रहते हैं. यूं भी वहां रहने वाले हर प्राणी की जिंदगी में कुछ न कुछ खास रहा होगा. जिससे उन्होंने सामान्य रास्ते से हटकर भटकाव–भरा या कि यायावरी पंथ चुना हो. गोया वहां मौजूद हर व्यक्ति का जीवन एक रहस्यमय संसार था, जिसमें अनपेक्षित, अपरिचित तथा अविश्वसनीय व्यक्ति का प्रवेश वर्जित था. वैसी हालत में यह उम्मीद रखना कि बड़ीम्मा कौंसा के जीवन–रहस्य को मेरे सामने उजागर कर देंगी, व्यर्थ ही था.
खुद बड़ीम्मा की कहानी भी कौतूहल जगाती थी. अपनी लंबी उम्र में वे कब फुटपाथी जिंदगी का हिस्सा बनीं….क्यों बनीं, यह एक रहस्य ही था. संभव है कि वे कौंसा को अपने बारे में सबकुछ बता चुकी हों, और उनके जीवन के बारे में जानती हो. लेकिन बाकी के लिए तो उन दोनों की दुनिया रहस्यमय ही थी. पर एक दिन बातों–बातों में मेरे मुंह से बापूधम का जिक्र हो ही गया. सुनते ही बड़ीम्मा चैक पड़ी थीं.
‘अरे, वहां तो एक लंबा, काला–सा….झुकी हुई कमर वाला एक भिखारी भी रहता था….जाने क्या नाम था उसका…मतंगा!’
‘आप जानती हैं उन्हें?’ बड़ीम्मा के मुंह से मतंग चाचा का नाम सुनते ही मेरा चेहरा खिल उठा था. पर अगले ही क्षण मैं अतिरिक्त रूप से सावधान हो गया. मतंग चाचा के जरिये कहीं बड़ीम्मा मेरी कहानी भी न जान चुकी हों—यही डर सताने लगा. लेकिन यह सोचकर मुझे आश्वस्ति हुई कि बड़ीम्मा कहीं आती–जाती नहीं. और इतने दिनों तक मतंग चाचा को मैंने वहां आते–जाते देखा भी नहीं था. यदि वे मतंग चाचा को जानती हैं तो संभव है कि बापू से भी परिचित हो. इस विचार के साथ ही मेरा मन अनजानी आशंकाओं से भर गया. इसी के साथ बड़ीम्मा के बारे में जानने की इच्छा भी जोर मारने लगी. अतः मैंने अपनी प्रश्नाकुल दृष्टि उनके चेहरे पर टिका दी.
‘बहुत चटोरी जुबान है उसकी. अच्छा खाने का शौकीन ठहरा. पर दूसरे भिखारियों की तरह वह शराब को हाथ नहीं लगाता था. न किसी और तरह का नशे का आदी था. सूफियाना मिजाज था उसका. हर समय न जाने कहां खोया रहता. जब मैं उसके चटोरेपन पर आक्षेप करती तो वह हंसकर कहा करता था—‘तुम ठीक कहती हो बड़ीम्मा! इसी कमबख्त जुबान ने सरकारी नौकरी छीन ली. घर–परिवार से अलग किया. अपनों की नफरत मिली. मान–सम्मान, धर्म–ईमान सब कुछ गंवाया…..’
‘बड़ीम्मा, क्या आप मतंग चाचा के घर–परिवार के बारे में जानती हैं?’ मैंने पूछा था.
‘बहुत थोड़ा! बस इतना ही जितना कि उसने बताया था. ऊपर से जितना भला बनता है, उतना वह है नहीं. कहता था कि उसका एक भरा–पूरा परिवार है. बेटे और बहुएं हैं. खाने–पीने का शौकीन ठहरा. हमेशा अकेला रहा, अपनी मर्जी का खाया पिया. दूसरे की दखलंदाजी तो उसको जरा भी पसंद नहीं. यहां कुछ दिन रहा. मेरे बनाए खाने की बहुत तारीफ करता था. लेकिन यहां के जमघट से उकताकर एक दिन बिना बताए चला गया.’
मतंग चाचा अपनी आयु अस्सी वर्ष बताते थे. बड़ीम्मा ने जो बताया उसके अनुसार तो वे पिछले पचीस–तीस वर्षों से भीख मांगते आ रहे हैं. बड़ीम्मा ने मतंग चाचा के बारे में जो बताया उसमें ऐसा कुछ भी नहीं था, जो मुझको मालूम न हो. मुझे यह जानकर तसल्ली हुई कि उन्होंने बापू के बारे में बड़ीम्मा को कुछ नहीं बताया था. सहसा मुझे याद आया कि भागते समय बापू मेरे छोटे भाई–बहनों को मतंग चाचा के पास ही छोड़कर आया था. जाने उनकी क्या हालत हो.
‘मतंग चाचा आपसे कब मिले थे बड़ीम्मा?’ मैंने प्रश्न किया.
‘कई साल हो गए, बुढ़ापे में समय कैसे गुजर जाता है, याद ही नहीं रहता. इतना जरूर याद है कि वह दिल का भला है. खाने–पीने का शौकीन है, पर अपनी जिम्मेदारियों से कभी पीछे नहीं रहा. जो किया मन का किया, गलती की तो पछताया भी. जाते–जाते उसने जो कहा था, वह भी कभी नहीं भूलता. मुझे आज भी उसके शब्द अच्छी तरह से याद हैं. उसने कहा था—घर छोड़ने वाला खुद से भी भागता रहता है, बड़ीम्मा! वह पिछले जीवन की हरेक घटना, स्थान तथा व्यक्ति से दूर चले जाना चाहता है. यहां तक कि उनकी छाया भी अपने पास फटकने नहीं देना चाहता.’
उसकी बातों में मलंग की–सी सचाई थी. यहां के भिखारियों को देखकर एक दिन उसने एक किस्सा भी सुनाया बताया था, ‘बड़ीम्मा! जितने भी लोग यहां जमा हैं….ये सभी दूर–दूर से आए हुए हैं. रेलगाड़ी में भीख मांगते हुए ये खासतौर पर सावधान रहते हैं कि कोई परिचित, गांव–जुहार का मानस नजर न आ जाएं. यहीं एक भिखारी आया जो अपना नाम परसा बताता था. बहुत अच्छा गला पाया था. रेलगाड़ी में चलते हुए भीख मांगता था. पुलिस और रेलवे के कर्मचारियांे तक से पूरी सेटिंग थी. हर सप्ताह नियमित रूप से चढ़ावा भेजता था.
एक दिन वह रेलगाड़ी में सिर पर हिमाचली टोपी ओढ़े व्यक्ति को देख गाना ही भूल गया था. वह आदमी अपने आप में मग्न, बराबर में ही बैठी सवारी से बात कर रहा था. उनकी बातों से जब उसको मालूम पड़ा कि वह उसी के जिले का है तो घबरा गया. बचते–बचाते वह दरवाजे तक पहुंचा और सवारियों के बीच खुद को छिपाने की कोशिश करने लगा. सहसा वह आदमी उठा और दरवाजेे की ओर बढ़ने लगा. परसा को लगा कि वह पहचान लिया गया है. और अब पूछताछ करने के लिए उसी के पास आ रहा है. बस उसने आव देखा ना ताव, तत्काल चलती रेलगाड़ी से छलांग लगा दी. अगले दिन समाचारपत्रों एक भिखारी द्वारा आत्महत्या शीर्षक से उसकी खबर छपी.’
बड़ीम्मा चुप हुई तो उसकी आंखें सुदूर अतीत में न जाने कहां टिकी हुई थीं. जैसे वह धुंधली आंखों से पटरियों पर छितरी परसा की लाश को देख रही हो.
‘बड़ीम्मा, क्या सिर्फ झूठी इज्जत की खातिर ही ये खुद को छिपाए रहते हैं.’
‘मैं क्या बता सकती हूं बेटा. सिवाय इसके कि जो लोग घर–संसार छोड़ आने का दावा करते हैं, वे इस दुनिया में सबसे ज्यादा झूठे, धोखेबाज और मक्कार होते हैं. और तो और उनकी अपनी ही नजर में उनका झूठ कहीं नहीं टिक पाता. यही कारण है कि वे हमेशा बेचैन बने रहते हैं. अपनी बेचैनी को कुछ नासमझ गांजे और चरस के नशे से मिटाना चाहते हैं, तो कुछ जुआ खेलकर या फूहड़ ढंग से गा–बजाकर. मतंग जैसे भिखारी जीभ के लिए अच्छे–चटपटे भोजन का इंतजाम करके केवल अपना शौक ही पूरा नहीं कर रहे होते….खुद को सजा भी दे रहे होते हैं. यही कारण है कि उन्हें कभी शांति नहीं मिलती. भागते रहते हैं, इस दुनिया से और उससे भी अधिक अपने आप से.’
मतंग चाचा का नाम दुबारा आते ही मैं सतर्क हो गया. जान–बूझकर मैं उनके किस्से से बचना चाहता था. डर था कि मतंग चाचा के वर्तमान का जिक्र बापूधाम की तंग गलियों से गुजरता हुआ मुझ तक भी पहुंच सकता है.
‘बड़ीम्मा मैं अब चलूं…? लाला मेरा इंतजार कर रहा होगा.’ मैंने कहा. लाला मैं उस चाट वाले को कहता था, जिसके यहां पिछले कुछ दिनों से नौकरी करने लगा था.
‘क्यों रे! चार ही दिनों में क्या नौकरी वाला बन गया है तू!’ बड़ीम्मा ने उलाहना दिया. फिर प्यार से मेरी पीठ हाथ फिराती हुई बोली—
‘अच्छा है, ऐसे ही मेहनत करता रह. मेहनत की रोटी का स्वाद ही अलग होता है बेटा. ऐसी रोटी जो दूसरे की कमाई की हो, पेट का बोझ भले ही बन जाए, उससे तृप्ति नहीं कभी मिल पाती. तभी तो तू देखता है कि यहां शाम को आते ही लोग कुत्ते की तरह रोटी पर कैसे टूट जाते हैं. तूने देखा ही होगा, क्या फर्क है इनमें और जानवरों में. दूसरों की क्या कहूं, मैं खुद भी तो उन्हीं में से एक हूं. पर तू इससे बचकर रहना.’
मैं वहां से चला आया. पर बड़ीम्मा की बातें अभी तक मेरे कानों में गूंज रही थीं. उस दिन मैने जाना कि बात यदि अनुभवों से पगी हो, तो वह सच्ची और ज्यादा असरदार होती है.
ओमप्रकाश कश्यप