धारावाहिक उपन्यास
और सच होने के कारण शायद कुछ कड़वी भी.
बड़ीम्मा ने जाने क्या देखा था मुझमें, मैं कभी समझ नही पाया. संभवतः वह मुझे चेतावनी देना चाहतीं कि जिस दुनिया में अकेला घिसटने का प्रयास कर रहा हूं, वह एकदम आसान नहीं है. उसमें घिसटने के लिए भी कौशल की जरूरत पड़ती है. यह सब सिखाया था उन्होंने एक कहानी के रूप में. वह किसी और की नहीं कोंसा की ही कहानी थी, जो उन्होंने अगली ही बैठक में मुझे सुना दी थी. बेहद दर्दनाक और रोंगटे खड़े कर देने वाली कहानी….मैं सुनकर हैरान रह गया था कि अठारह–बीस वर्ष की वह दुबली–पतली लड़की ने होश संभालाने से अब तक कितना सहा है कि इस छोटी–सी उम्र में….अगर इसे खेलने–खाने की उम्र कहा जाए तो भी गलत नहीं है कि वह दो बच्चों की मां बन चुकी है. हालांकि एक भी बार वह अभागी मातृत्व सुख नहीं पा सकी. एक बार बच्चा मरा हुआ जन्मा. दूसरी बार बेचारी खुद भी मरते–मरते बची….जाने कितनी बार कितने–कितने लोगों ने उसे छला….दुत्कारा….ठोकरें दीं….बुरा–भला कहा.
दुःख की शुरुआत तो तभी हो चुकी थी जब वह मां की कोख में आई थी. पिता तो बचपन से कोढ़ी थे ही. विवाह नहीं हुआ तो अपने ही जैसी एक लड़की को इस उम्मीद के साथ जीवनसाथी मान लिया कि जिंदगी के दुःख एक–दूसरे के आंसू पोंछते हुए बिता देंगे. गांव वाले तो उनके पिता को पहले ही नापसंद करते थे. विवाह के बाद उनके मुंह और चढ़ने लगे. कोंसा पेट में आई तो मुश्किलें और भी बढ़ गईं. गर्भ जब सात महीने का ही था तो गर्भ में बच्चा हट जाने से कोंसा की मां को जोर का दर्द हुआ. वह जोर–जोर से चीखने लगी. लेकिन गांव वाले दूर से ही कानों में उंगली डाले सुनते रहे. कोई उनकी मदद को न आया. कोंसा के पिता दाई को बुलाने गए तो उसने भी छूत के डर से हाथ लगाने से इंकार कर दिया.
पिछला कोई अनुभव तो था, बेचारे अकेले की जूझते रहे. आखिर धरती मां ने सहारा दिया. ईश्वर ने हाथ थामा. सुबह होते–होते एक सतमासी बच्ची ने जन्म लिया. गोरी–चिट्टी, सोने की तरह दिपदिपाती हुई. मां और बाप दोनों ने उसको मिलकर नाम दिया—कोंसा!
माता–पिता जो भी अपनी संतान के लिए कामना करते हैं, वह सब कोंसा को मिला. रूप–लावण्य और वुद्धि–वैभव भी. थोड़े ही दिनों के बाद कोंसा के पिता को गांव छोड़ना पड़ा. मन मारकर अपनी बच्ची के साथ वे गांव छोड़कर एक कस्बे में जा बसे. वहां बहुत कम उम्र में ही कोंसा ने पढ़ना शुरू कर दिया. कोंसा शुरू से ही बहुत मेधावी थी. गणित में तो उसे कमाल हासिल था. बड़े–बड़े समीकरण वह चुटकियों में हल कर देती. बीजगणित की अनेक जटिल प्रमेय उसे जुबानी याद थीं. आठवीं परीक्षा में गणित में शत–प्रतिशत अंक लाकर उसने सभी को चैंका दिया था.
‘यह लड़की मां–बाप का नाम अवश्य रोशन करेगी. कोंसा को लेकर चारों तरफ यही चर्चा होने लगी. लेकिन जिंदगी उतनी आसान नहीं थी. कोंसा के माता–पिता को कोई नौकरी तो देता नहीं था. उन्होंने छोटी–सी दुकान खोलकर जिंदगी से जूझना चाहा. वहां भी नाकाम ही रहे. ग्राहक आए ही नहीं. पढ़ाई में तेज होने के कारण कोंसा को छात्रवृत्ति मिल चुकी थी. स्कूल वालों ने इसी शर्त पर उसको हाॅस्टल में जगह दी थी कि वह पढ़ाई पूरी होने तक वह अपने घर नहीं जाएगी. नासमझ लोग थे, कोढ़ को छूत का रोग मानकर व्यवहार कर रहे थे. अध्यापक और साथ के विद्यार्थी कोंसा को चिढ़ाते. कोई उसके साथ बातचीत करने, खाना खाने को तैयार न होता था. उसी हालत में कोंसा ने दसवीं की परीक्षाएं दीं और एक बार फिर अपना और स्कूल का नाम रोशन किया. इस बार पूरे प्रदेश में अव्वल आई थी.
कोंसा के मां–बाप जैसे–तैसे अपना पेट भर रहे थे. उन्हें यही प्रसन्नता थी कि उनकी बेटी उनका नाम कमा रही है. कोंसा की सफलता की खबर उसके गांव भी पहंुची थी. इस बीच वहां एक स्कूल भी खुल चुका था. गांव से स्कूल से कोंसा के लिए बुलावा आया. फीस माफी और रहन–सहन का खर्च उठाने के लिए भी स्कूल ने हामी भरी थी. यह न्योंता लेकर आने वाले खुद उस काॅलेज के प्रिंसीपल साहब थे.
‘बेटी, उस गांव में तुम्हारा जन्म हुआ है, इसलिए हमारा अधिकार तुमपर इस स्कूल वालों से अधिक है. इसीलिए मैं चाहता हूं कि तुम गांव के स्कूल में पढ़कर उसका नाम पूरे देश में रोशन करो.’ प्रिंसीपल साहब ने अपने पास बिठाकर कोंसा से कहा था. उस क्षण कोंसा की खुशी उसकी आंखों से छलक रही थी.
‘मैं भी यही चाहती हूं, सर! गांव में हमारा घर है. मैं आज ही जाकर पिताजी से बातें करूंगी. उन्हें गांव चलने के लिए तैयार कर लूंगी.’ अपनी खुशी पर काबू पाते हुए कोंसा ने जैसे–तैसे कहा.
‘पर बेटी, मैं तो तुम्हारे चलने की बात कर रहा था.’
‘मैं समझी नहीं सर!’
‘मुझे तो कोई परेशानी नहीं है बेटी. लेकिन गांववालों को तो जानती ही हो, वे अनपढ़ और गंवार ठहरे. अगर उन्हें थोड़ी भी समझ होती तो उन्हें गांव से निकालते ही क्यों?’
‘आप उन्हें समझा सकते हैं कि कोढ़ छूत का रोग नहीं है…..’ कोंसा ने कहा.
‘वे कहां मानेंगे. और फिर तुम तो जानती हो बेटी, स्कूल–कालेज बिना चंदे के तो चलते नहीं हैं. वह स्कूल भी उन्हीं की जमीन पर बना है. गांव वाले नाराज हुए तो…!’
‘मैं वहां अकेली नहीं जा सकती.’ कोंसा ने निर्णय सुनाते देर न की.
‘तुम यहां भी तो अकेली रहकर पढ़ रही हो.’ प्रिंसीपल ने तर्क दिया. कोंसा नहीं मानी. वैसे भी गांव में इंटर तक का ही स्कूल था. दो साल बाद आगे की पढ़ाई के लिए उसको गांव जाना ही था. उसके बाद इंटर की परीक्षाएं हुईं. लोगों को कोंसा से जैसी उम्मीद थी, वैसा ही हुआ. एक बार फिर उसने अपने आप को प्रदेश–भर में अव्वल सिद्ध कर दिया.
इस बीच मां–बाप से दूर रहते हुए कोंसा को पांच साल से अधिक हो चुके थे. इन पांच वर्षों का एक–एक पल उसने उनकी याद में बिताया था. इसीलिए जैसे ही उसको अपने परीक्षाफल की सूचना मिली, वह अपनी खुशी पर काबू न रख सकी. उत्साह में स्कूल को सूचना दिए बिना ही वह माता–पिता से मिलने के लिए निकल पड़ी. कोंसा ने अपनी अप्रत्याशित आसमान छूती कामयाबी के कारण उस स्कूल में ही अपने कई दुश्मन बना लिए थे. गरीब और कोढ़ से ग्रस्त माता–पिता की बेटी प्रदेश में अव्वल आए, यह उन लोगों को कतई स्वीकार नहीं था. वे अवसर की तलाश में थे. स्कूल से अनुमति लिए बिना माता–पिता से मिलकर कोंसा ने उन्हें यह बहाना दे दिया. कोंसा के लौटते ही उसके विरुद्ध अनुशासन भंग की कार्रवाही की गई.
जिस कौंसा के कारण स्कूल का नाम जिले–भर में चमका था, उसको स्कूल के बाहर करते समय स्कूल ने समय नहीं लगाया. उसकी मां इस आघात को सह न सकी और इस घटना के पांच–छह दिन बाद ही इस दुनिया से प्रस्थान कर गई. पढ़–लिखकर अच्छी जिंदगी जीने के कोंसा के अरमान धरे के धरे रह गए.
उस समय वह अपनी आयु का अठारहवां साल पार कर रही थी. दुनियादारी से अलग प्रकृति अपना दायित्व बाखूबी निभा रही थी. कोंसा की देह से यौवन के अंकुर फूटने लगे थे. उसकी देह हमेशा ताजे कमल–सी खिली रहती. देहगंध संयमी से संयमी युवाओं को पागल बना देती. उसकी आंखों में हजार–हजार सपने थे. पर राहें उबड़–खाबड़, पथरीली, उजाड़ और अंधकार–भरी थीं. मां की मौत के बाद पिता तो जैसे टूट से गए थे. मासूम कोंसा पर उन्हें संभालने की जिम्मेदारी भी आ गई.
आगे हुआ वही जिसका अंदेशा था. जिस बात का डर हर जवान लड़की के माता–पिता की नींद उड़ाए रखता है. एक दिन जब कौंसा किसी काम से लौट रही थी, गांव के कुछ लड़के उसके साथ छेड़छाड़ करने लगे. फिर बड़े भी उनमें आकर मिल गए. उसके बाद तो यह रोजाना का काम हो गया. कोंसा घर से बाहर निकलने से कतराती. रोती, डर लगता था उसे. पर उसका बस नहीं चलता था.
विपदाएं अगर किसी और रूप में, किसी और ढंग से पेश आतीं तो उनका सामना किया जाता. कोंसा उनसे भी जूझ लेती. हार–जीत की परवाह किए बिना ही दुनिया–भर से टकरा जाती. परंतु गली चलते छेड़छाड़….लोगों के चारित्रिक के पतन का यह आखिरी गर्त था. और कौंसा के पिता के लिए हौलनाक स्थिति. वह तो यह सोच भी नहीं पा रही कि क्या किया जाए. कैसे मुक्ति पाई जाए उन भेड़ियों से. बीमार पिता के साथ कैसे सामना करे उन दुष्टों का. रोजगार न मिलने के कारण वहां भुखमरी जैसी हालत पहले से ही थी. मजबूर होकर उन्होंने कस्बे को भी छोड़ने का निर्णय ले लिया. वैसे भी कच्ची दीवारों और छत की जगह ऊपर पड़े जर्जर छप्पर वाले किराये के मकान के अतिरिक्त वहां था भी क्या, जिसे घर कहा जा सके. जिसके लिए उस कस्बे में बसे रहने का लोभ पाला जाए.
*
अपने पिता को लेकर कोंसा सहारनपुर आ गई. एक छोटी फैक्ट्री में काम भी मिल गया. कुछ दिन जिंदगी सामान्य ढंग से बीती. मगर हिंस्र भेड़ियों की संख्या वहां भी बेशुमार थी. उन्हें जैसे ही पता चला कि कोंसा के पिता बीमार हैं, कोढ़ से ग्रस्त, पीठ पीछे किसी का सहारा नहीं, तो वे गिद्ध की तरह उसके चारों ओर मंडराने लगे. लालची लोगों की लपलपाती जहरीली जिव्हाएं उसकी देह पर जहर टपकाने लगीं. जहर बुझी नजरें तन–मन बींधने लगीं. नई जगह, बिना किसी जान–पहचान, जैसे–तैसे एक कालिज प्राइवेट विद्यार्थी के रूप में दाखिला मिला. एक मिशनरी काॅलेज में. बीए की प्रथम वर्ष की परीक्षा में अधिकतम अंक पाकर कोंसा ने एक बार फिर सभी को हतप्रभ कर दिया. जो लोग उसके प्रवेश पर आना–कानी कर रहे थे, वे अब उसपर गर्व करने लगे.
कोंसा दिन में काम करती. शाम को पढ़ाई करती. सेवा–सुश्रुषा से उसके पिता की हालत सुधरने लगी थी. लेकिन वह सुख भी ज्यादा दिन संभव न हुआ. मनचले लोगों की मनमानियां बढ़ती ही जा रही थीं. कोंसा को पता भी न चला और उसको लेकर मनचले लोगों के दो गुट बन गए. एक दिन उनमें आपस में ही घमासान हो गया. कोंसा को मालूम तब पड़ा जब पुलिस उस घटना की जांच के लिए उसको पुलिस स्टेशन बुलाकर ले गई. थाने जाने के बाद कोंसा और उसके पिता बेहद घबरा गए. सहारनपुर में उनका न तो स्थायी रोजगार था, न पक्का ठिकाना. एक दिन दोनों ने सहारनपुर छोड़कर राजधानी की राह पकड़ी.
कौंसा ने वहां नर्सिंग की पढ़ाई के लिए दाखिला ले लिया. पर पिता की चिंता दूसरी थी. उन्होंने वही किया जो पिता के नाते उनका धर्म था. ढूंढने पर एक लड़का मिल भी गया. वह एक फैक्ट्री में काम करता था. कोंसा के मना करने के बावजूद पिता ने उसी के साथ उसका विवाह कर दिया गया.
कोंसा का विवाह तय करते समय उसके पिता ने न जाने क्या–क्या सोचा था. न जाने कितने स्वप्न सजाए थे. उन्हें ऐसा करने का अधिकार भी था. कोंसा के अपने सपने, कुछ न कुछ अपनी कामनाएं भी रही होंगी. जिनमें एक कोशिश जिंदगी के एक और रूप को देखने और समझने की रही होगी. नादान लड़की! जिंदगी को कितनी आसान समझती थी.
*
कैसी विडंबना है, जो लड़की अंकगणित के सवाल चुटकियों में हल कर लेती थी. बीजगणित की जटिलतम प्रमेय जिसे जुबानी याद थीं. वह विवाह की मामूली गुत्थी को समझ न सकी. न जान सकी कि लड़की के लिए विवाह का अभिप्राय अपनी हैसियत को पुरुष के अस्तित्व में विलीन कर देना है. खपा देना है दूसरे की इच्छाओं–महत्त्वाकांक्षाओं के बीच. विवाह पक्का करते समय उसके उसके पिता ने कहा था कि वह अपनी जिंदगी तो जी चुका….कि ब्याह के बाद कौंसा का जीवन संवर जाएगा….कि जो दुःख उसकी बेटी अब तक झेलती आई है उनसे उसको मुक्ति मिलेगी. परंतु कितना गलत था वह. खुद भुलावे में था कि कोंसा को भुलावा देना चाहता था. कि बेटी के हाथ पीले करते समय एक मासूम पिता की वह कोरी खामा–ख्याली थी. कौन जानता था कि असलियत को. इस बात को कि नियति द्वारा असली परीक्षा तो अब ली जानी है.
कोंसा जवानी की पहली दलहीज पर थी. उसका रूप कंचन–सा दिपदिपाता था. कोई भी पुरुष उस रूपदुलारी को पाकर धन्य ही होता. किंतु उसका पति न जाने किस कुंठा और भय का सामना कर रहा था. कि डरा हुआ था अपने आप से. कि दुल्हन बनी कोंसा के रूप ने उसको चोंधिया दिया था. हर लिया था उसकी बुद्धि–विवेक को. पहली ही रात न जाने कब उसके दिमाग में यह डर समा गया कि पिता का कोढ़ उसकी बेटी में; और बेटी के जरिये उसकी देह में भी समा सकता है. इसलिए पहली ही रात कोंसा से अघोषित दूरी बना ली थी उसने.
हालांकि आने वाली रातों में उद्दाम वासना इस दूरी को मटियामेट कर चुकी थी. वह फैक्ट्री से नशे की हालत में लोटता. कोंसा के हाथ का बना खाना भी उसके गले न उतरता था. इसलिए रास्ते में ही खा–पीकर लौटता. कोंसा खाना लिए उसकी प्रतीक्षा में होती. उसकी भूख की परवाह किए बिना ही वह अपनी देह की भूख मिटाने पर जुट जाता. कोंसा अपनी किस्मत को कोसती. उसकी देह को रौंदते हुए उसने उसे कम आयु में ही मां बना दिया. परंतु मातृत्व सुख से वंचित रही वह अभागी. एक के बाद एक, दो बच्चे हुए….दोनों ही मृत. उनका इल्जाम भी कौंसा के ही सिर गया. यह कहा गया कि देह में छिपा कोढ़ बच्चे में जान भरने ही नहीं देता.
कोंसा का अपने ऊपर से विश्वास उठने लगा. पति जब उसपर कोढ़ी होने का इल्जाम लगाता तो उसे जाने क्यों उसकी बात पर विश्वास होने लगता. दिन में जब वह घर पर अकेली होती तो अपने सारे कपड़े उतार डालती. फिर देर तक अपनी नंगी देह के एक–एक स्थान को टोहती. कहीं कोई दाग तो नहीं. मामूली फंुसी भी उसके दिल की धड़कनों को बढ़ा देती. उस समय उसका अपना ही विश्वास डोलने लगता. बार–बार देखने पर भी विश्वास न होता. नतीजा यह होता कि भारी तनाव में उसकी सांसे चलने लगतीं. कलेजा उछलकर बाहर आने को होता.
पति तो अपना सारा वेतन शराब और होटल पर उड़ा देता था. घर चलाने के लिए कोंसा को खुद ही काम करना पड़ता. भूख और तनाव से उसकी देह की कांति धुलने लगी थी. चेहरा पीला पड़ने लगा था. दिमाग कुछ भी सोचने, फैसला करने में असमर्थ था. एक दिन शाम को जब वह घर लौटी तो झोपड़ी के दरवाजे अपने लिए बंद पाए. भीतर वह आदमी जिसे वह अभी तक पति मानती आई थी, किसी दूसरी औरत के साथ था. छाती पर दुःख की शिला उठाए उसने ससुराल की देहरी लांघ दी.
पिता के पास लौटी तो पत्थर की शिला बनकर, मूक–अबोल और निःसंवेद. सुख–दुख, हंसने–रोने का असर ही नहीं. बिस्तर पर पड़ा बीमार पिता बिन कहे ही बेटी के मन की व्यथा समझ गया. तीन महीने का गर्भ था उसे. दो वर्ष में तीसरी बार ऐसा हुआ था. कोंसा उसे मिटा देना चाहती थी. ताकि अतीत का कोई चिह्न बाकी न रहे. पर बीमार पिता का कहा मान उसने समझौता करना ही ठीक समझाµ‘कि जिसका अंश कोख में है वह तो कभी समझ न सका. संभव है कोख से जन्मा जीव जिंदगी के अभावों को पाट दे. दुखों के आगे बाड़ बनकर खड़ा हो जाए.’
बड़ीम्मा जैसे अदृश्य पट पर लिखी इबादत को बांच रही थीं. वे चुप हुईं तो मेरी जिज्ञासा एकएक भड़क गई—
‘वह बच्चा कहां है? अब तो बहुत बड़ा हो गया होगा.’ मैंने पूछा.
‘कैसा बच्चा?’ बड़ीम्मा के मुंह से हाय–सी निकली. इतनी गहरी कि सारा वातावरण दुःख से सराबोर हो गया. बड़ीम्मा जैसे जल्दी से जल्दी उस दबाव से बाहर आ जाना चाहती थीं. इसलिए कुछ ही क्षणों के बाद अपनी उसी रौ में, उन्होंने फिर कहना शुरू कर दिया—
‘मासूम हिरनी यही सोचकर जंगल–जंगल भागती रहती है कि जंगली जानवरों से दूर चली जाएगी. वहां अपनी सामान्य जिंदगी जिएगी. अपने बच्चों के साथ चैन से रहेगी. लेकिन जंगल में चलने वाला ताकत का कानून, परिस्थतियों की मनमानी उसके हर ख्वाब को नोंच डालती है. वह बेचारी यह भूल जाती है कि खूंखार जानवरों से दुनिया का कोई कोना खाली नहीं है. भेष बदलकर वे हर जगह, हर बस्ती, हर महफिल में मौजूद रहते हैं. मौके की ताक में. दाव लगते ही निर्भय होकर वार करते है.
‘कोंसा ने अलग जिंदगी जीने का फैसला किया. मगर इस बार भी उसका रूप उसके लिए छलावा साबित हुआ. वहां आए डेढ़–दो महीने ही हुए थे कि उसकी भनक उसी बस्ती में रहने वाले पूरन को लग गई. चालाक और र्काइंया पूरन मजमा लगाकर, झूठ बोलकर लोगों को तरह–तरह से मूर्ख बनाने में माहिर था. झुग्गी में अकेला रहता. शराब और जुए की लत थी. इसी से उसकी घरवाली उसे छोड़ कर चली गई थी. कई गंदी आदतें थीं. वह आते–जाते कोंसा को ताका करता था. एक दिन कोंसा के पैर में मोच आ गई. उस दिन शाम को वह मददगार बनकर पहुंच गया. उस समय कोंसा दर्द से बिलबिला रही थी. उसका बूढ़ा बीमार पिता मददगार तो था नहीं. पूरन ने ही उसे डाॅक्टर को दिखा आने का झांसा दिया.
वही रिक्शा में डालकर कोंसा को डाॅक्टर तक ले गया था. डाॅक्टर को उसने राम जाने कौन–सी पट्टी पढ़ाई और उस कसाई डाक्टर ने भी मासूम कोंसा पर दया करने, अपना धर्म निभाने की बजाए पापी पूरन का ही साथ दिया. घर पहुंचते ही वह मासूम दर्द से बिलबिलाने लगी, इतनी बुरी हालत थी कि देखने–सुनने वाले का भी कलेजा फट जाए. सब के साथ मैं भी गई थी कोंसा से मिलने….उसकी खबर–सुध लेने के लिए. मगर मैं तो उसकी हालत देखकर ही घबरा गई थी, अबोध जान और इतना भारी कष्ट, भगवान किसी दुश्मन को भी न दे. इतना दुःख कि पत्थर का कलेजा भी फट जाए….मां, हे राम!!
हरामी पूरन ने अपने स्वारथ के खातिर भारी जुल्म किया था उस बच्ची पर. चार माह का गर्भ खून के साथ बह गया. जिस डाॅक्टर ने पाप में हिस्सेदारी निभाई— राम करे, उसके कीड़े पडें. उसे जिंदगी में कभी सुख–चैन नसीब न हो. उस दिन बड़ी मुश्किल से बच पाई थी, कोंसा. उस दिन को आज भी याद करूं दिल बैठने लगता है.’
‘और पूरन को किसी ने कुछ नहीं कहा?’
‘कोई क्या कहता भला….फिर पूरन कोई अकेला तो नहीं था. कोंसा जैसी मासूम लड़कियां जिस ओर भी जाएं, वहीं अनगिनत पूरन मिल जाते हैं. किस–किस से लड़ें वे बेचारी….’ बड़ीम्मा ने आहत स्वर में कहा. फिर चुप्पी साध गई. वह चुप्पी मुझे भी आहत कर रह थी. पर बड़ीम्मा से आगे कुछ भी पूछने का साहस न हुआ.
दुःख तो मैंने भी बहुत सहा था. मां तो गृहस्थी को सुख–दुःख की सार कहती आई थी. हर दुःख को शांत भाव से सह जाना उसका स्वभाव बन चुका था, मानो पत्थर की शिला, निद्र्वंद्व–निःस्पंद हो सबसे! लेकिन उस दिन बड़ीम्मा के मुंह से कोंसा के बारे में जो सुना वह दुःख और दुर्भाग्य की पराकाष्ठा थी. सीमा थी व्यक्ति के संयम और नियति के न्याय की.
मां के मरने के समय भी मैं रोया नहीं था. भागदौड़ के बीच पिता ने उसका अवसर ही नहीं दिया था. उसके बाद तो आंसू जैसे सूख से गए. आंखें सहारा का जंगल बन गईं. लेकिन उस दिन आंखें सचमुच नम थीं. कई दिनों के बाद आंसुओं से मुलाकात हुई थी. मन भीग–भीग–सा गया. आंसुओं की कारीगरी उसी दिन महसूस हुई. बड़ीम्मा का एहसान जताता हुआ मैं उनके पास से उठा. उन्होंने जिंदगी के एक और रूप से परिचित कराया था. वहां से लौटते हुए मुझे लग रहा था कि अब मैं कोंसा को अच्छी तरह समझ सकंूगा. क्या सचमुच? मन में इसे लेकर एक संदेह भी था.
कभी–कभी हम अपनी सीमाओं से बड़े दावे कर जाते हैं.
*
कभी–कभी जिंदगी खुद एक दाव बन जाती है.
बड़ीम्मा ने कहानी पूरी की तो रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी. शेष रात भी आंखों में बीती, बीतनी ही थी. मैं करवट बदलता रहा. आंखें नींद की आतुर प्रतीक्षा में जलती रहीं. पर नींद पलकों तक फटकी नहीं. उसी दिन जीवन की तलख हकीकत से अंदाज हुआ. लगा कि दुख और पीड़ाएं केवल मेरी ही सहचर नहीं. ना मेरा गम दुनिया के हर रंजोगम से बड़ा और खास है. बल्कि मेरे भीतर तो महज खालीपन है. मैंने तो सिर्फ मां को खोया है, परिवार से बिछुड़ा हूं. जिंदगी में सिर्फ अभाव सहे हैं. इस दुनिया में बहुत जिंदगियां हैं जिनकी एक–एक सांस बोझ है. हर कदम कांटों–भरा सफर है. हर दिन बरबादियों की बारात सजाता है.
मैं तो महज अकेला था. अपने सिवा कोई जिम्मेदारी भी नहीं थी. अपनी भी क्या जिम्मेदारी, कोई सपना, कोई लक्ष्य तक नहीं था, जो तनाव का कारण बने. मगर कोंसा! अगर मैं उसकी जगह पर होता….मेरा पिता यदि कोढ़ या वैसी ही खतरनाक बीमारी का शिकार होता….ऊपर से अबोध बेला. हरिया और कल्लू भी मेरे साथ होते तो क्या मैं सबकी जिंदगी का बोझ उठा पाता? कहते हंै कि वक्त सबसे बड़ा शिक्षक होता है. वह खुद सिखा देता है, पर हमेशा हर बार तो ऐसा नहीं होता. वक्त कभी–कभी खुद हार जाता है. फिर सीखने वाले की काबलियत भी तो महत्त्व रखती है.
मैंने तो सिर्फ मां को खोया था, हालांकि ऐसी स्थितियों की तुलना नहीं की जा सकती. वैसा करना भी पाप है. पर कोंसा तो कच्ची आयु में ही बहुत कुछ खो चुकी थी. तीन मासूम जानें जिन्हें इस दुनिया में आंखें खोलनी थीं. कुछ सपने देखने थे….सपनों को हकीकत में बदलने के लिए संघर्ष करना….हार–जीत के बीच झूलना था. वे दुनिया में आने से पहले ही कुम्हला गए….डाली से नोंच लिए गए. तब क्या बीती होगी कोंसा पर. उस बेचारी को तो रोने का अवसर भी शायद ही मिल पाया हो. अपने आंसू पोंछ तुरंत जुट गई होगी कबाड़ बीनने पर. बीमार पिता का दवा और भूख का इंतजाम जो करना था.
कोंसा के बारे में सोचना पीड़ा के गहरे समंदर में गोते लगाने जैसा था. मैंने उसे अपने दिमाग से झटक देना चाहा पर यह नामुमकिन सिद्ध हुआ. इससे भी ज्यादा दुख मुझे यह सुनकर हुआ था कि पूरन अब भी उसी बस्ती में मंडराता रहता है. एक दिन बड़ीम्मा ने मुझे दिखाया भी था. काली–स्याह सरकंडे–सी पतली देह….घनी मूंछे….मेंहदी रंगे लाल–भूरे बाल और आंखों पर चढ़ा मोटा काला चश्मा. कुल मिलाकर आभाहीन व्यक्तित्व! जिसमें कोई खासियत नहीं. अवस्था चालीस से ऊपर. कोंसा उससे कम से कम बीस साल छोटी. अपनी कमी को पाटने के लिए वह चमकदार सूट पहनता. जूते पालिश से चमचमाते रहते. बालों में खूब तेल मलता. तेज परफ्यूम का इस्तेमाल करता, जिससे उसकी संपन्नता का एहसास हो. किंतु ये बनावटी उपाय उसके व्यक्तित्व को उभारने के बजाय भोंडा और निस्तेज बना देते थे. चालाक खूब था. सिर्फ चेहरे को देखकर उसके मन पर पुती कालिख को पहचान पाना नामुमकिन ही था.
बड़ीम्मा ने जिस दिन पूरन के बारे में बताया मैं उसी समय उसके ठिकाने की खोज में जुट गया था. पिटने के बावजूद उसने बस्ती से नाता नहीं तोड़ा था. न वहां आना–जाना ही छोड़ सका था. कोंसा उससे बचती….देखते ही भय से कांप उठती. जैसे बाज के सामने पड़ते ही चिड़िया की रूह कांप जाती है, वही हाल कोंसा का होता. काम वह साल में कई–कई बार बदलता. कभी जादू–मंतर, कभी मजमेबाजी, तो कभी कोई और हुनरपेशी. पैसा कमाने के उसको अनेक हथकंडे आते, एक से बढ़कर एक. इसलिए यह धारणा भी बनती जा रही थी कि उसे काला जादू सिद्ध है. जिससे वह कुछ भी कर सकता है. इसलिए साधारण लोग उससे बचकर रहते. धर्मभीरू औरतें अपने बच्चों पर उसका साया तक न पड़ने देतीं. लेकिन यदि किसी कारण बच्चा ही बीमार पड़ जाए तो गंडे–ताबीज के लिए पूरन के पास दौड़ी चली जातीं. उन औरतों से घंटों बतियाता रहता. फूहड़ हंसी–मजाक करता. उसके बाद कुछ उल्टा–सीधा बुदबुदाकर एक ताबीज थमा देता. मजमा लगाता तो भी दर्शकों की कमी न होती. उसकी बातों का जादू उन्हें बस में किए रहता. अपना उल्लु सीधा करने के लिए वह कोई भी हथकंडा अपना सकता था. उसका मुख्य था काम था, लोगों को अपने वाग्जाल में फंसाकर नकली पत्थर बेचना. जिससे उसको खूब कमाई होती थी. और जैसी कमाई होती वैसी लुटाता भी था.
बात में से बात निकालना और बातों–बातों में सामने वाले के दिल में उतर जाना, फिर अपना उल्लू साध लेना, उसकी खासियत थी. दूसरों को धोखा खाते देख उसको प्रसन्नता होती थी. इसलिए वह हरदम दूसरों को छलने–भटकाने का प्रयास करता रहता था. लोग भी आसानी से उसके झांसे में आ जाते. कोंसा को ही लो. नादान लड़की. जमाने की ठोकरें खाकर भी संभलना नहीं सीख सकी. पूरन की बातों में फंसकर उस पर न जाने कैसे विश्वास कर बैठी. उसकी नादानी मेरे मन को दुःख पहुंचा रही थी.
मुझे एक ऐसे मित्र की खोज थी, जिससे मैं अपने मन की बात कह सकूं. हालांकि सलीम से अच्छी निभ रही थी. कहने को हम दोनों दोस्त भी थे. साथ–साथ रहते और खाते–पीते भी थे. लेेकिन सलीम की एक कमजोरी मुझे नापसंद थी. हरेक बात को हंसी में उड़ा देेने की आदत. वह किसी बात को गंभीरता से लेता ही नहीं था. हो सकता है यह उसकी अपंगता के कारण जन्मी कुंठा हो. जिसके कारण वह अपनी देह से, जमाने से दूर भागता रहता था. सच कहूं तो उस समय मुझे मां की जरूरत थी. बचपन में न जाने कितने तनावों, समस्याओं से हमारा वास्ता पड़ा था. मां जरूरत–भर बोलती. लेकिन उस समय उसका एक–एक शब्द बड़े–बड़े ग्रंथों पर भारी पड़ता. मां से बात करने के बाद मेरे मन के सारे संशय मिट जाते थे.
अब संशय विराट हैं, मगर समाधान एक भी नहीं. और दुनिया वैसी की वैसी ही है. बेदिल और बेरहम!
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अविश्वास की कमी चिंता को जन्म देती है. चिंता भविष्य के डर का उपाय कर लेना चाहती है. अविश्वास और डर से घिरा आदमी भविष्य की चिंता में सबकुछ जल्दी से जल्दी हड़प लेना चाहता है. वह नैतिकताओं की परिभााषा अपनी तरह से करता है. सिद्धांतों को परखने की कसौटी उसकी अपनी होती है. जो कमजोर दिल के होते हैं वे चालाकी की शरण में चले जाते हैं. जबकि मजबूत दिल के लोग दुनिया में संघर्ष का रास्ता अपनाते है. संघर्ष की असफलता और हड़बड़ी उन्हें अपराध की दुनिया में भी ढकेल सकती है. कामयाबी का कोई एक मूल मंत्र नहीं. नाकामी की तरह उसकी भी अनंत राहें होती हैं.
बताया गया था कि पूरन की कमाई की कोई सीमा नहीं है….कि जुए के दाव में हजारों जीत लेता है. सैकड़ों रुपये रोज पत्थर बेचकर कमा लेता है. गंडा–ताबीज से भी इतना कमा ही लेता है कि अकेली जिंदगी मजे से जी सके. मगर रहता वह झुग्गियों में ही था. आमदनी का बड़ा हिस्सा उसकी शौकीन मिजाजी की भंेट चढ़ जाता. पुलिस भी उससे जब–तब कुछ न कुछ ऐंठती ही रहती.
बड़ीम्मा ने इशारे–इशारे में ही यह भी बताया था कि उसका विवाह हो चुका है. उसकी पत्नी भी है. बड़ीम्मा ने जो कहा उन दिनों उसको समझने की मेरी उम्र थी, नहीं कह सकता. फिर भी उसकी बात सुनकर मैं चैंक पड़ा था. इस बात पर नहीं कि पूरन का विवाह हो चुका था और इस तरह वह कोंसा को धोखा दे रहा था. बल्कि इस बात पर एक औरत कैसे इतनी आसानी से पूरन की लापरवाहियों को सहे जा रही थी. क्यों उसको नहीं समझाती, रोक लेती बदफैलियों से.
‘पूरन की पत्नी, क्या वह भी कोंसा की तरह नादान है?’ बड़ीम्मा से मैंने पूछा था.
‘वह अलग झुग्गी डालकर रहती है. दोनों के बीच अबोला ठना रहता है. पूरन कहता है कि वह उसका खर्च उठाता है. लेकिन उस जैसा आदमी किसी जिम्मेदारी को ढंग से निभा ले जाए, इसपर भरोसा नहीं किया जा सकता.’ बड़ीम्मा ने बताया था.
इसके बाद उन्होंने जो कहा वह और भी हैरान करने वाला था. उससे मुझे पूरन और उसके बहाने समाज को समझने में आसानी हुई थी. पूरन कमजोर और आत्मविश्वास से गया–बीता इंसान है. ऐसे लोग जिम्मेदार नहीं हो पाते. हमेशा भागते रहते हैं. समाज से—और अपने आप से भी.
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उस रात मैंने दो फैसले किए थे. आप इसे भावुक मनःस्थिति की उड़ान भी कह सकते हैं. पहला यह कि अपना आत्मविश्वास बनाए रखने की हर संभव कोशिश करूंगा. यह बहुत बड़ी बात थी. मेरा दूसरा निर्णय था—किसी भी तरह कोंसा की पूरन से रक्षा करूंगा. जाहिर है कि मेरा दूसरा फैसला यथार्थ से परे और भावुकता से लबरेज था. इसीलिए कि जिस पूरन से मैं टकराने का प्रण करने चला था वह मुझसे हर मामले में बड़ा था. उल्टे–सीधे तरीकों से वह मोटी कमाई करता था. पुलिस कोर्ट–कचहरी की जानकारी भी रखता था. जबकि मैं तिनके की तरह इधर–उधर डोल रहा था. बिना किसी साधन और सहारे के. जिसे उसी का जन्मदाता अकेला छोड़ गया हो….मां की लाश लावारिस की तरह फूंक दी गई हो. जिसके तीन मासूम, छोटे–छोटे भाई–बहन न जाने किन हालात में हैं. और जिसमें इतना साहस तक नहीं है कि अपने उन मासूम भाई–बहनों की सुध ले सके. ऐसे में किसी भी सपने या संकल्प का मोल ही क्या था. आज इस बात को कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि उस रात किया गया एक भी फैसला कार्यान्वित न हो सका. ना कभी उसके बारे में सोच पाया. ना उन फैसलों को भूलने का कभी मलाल रहा.
जिंदगी जिस रफ्तार से बहती आई थी, उसी रफ्तार से बेआवाज बहती रही.