एक घर के बाहर मेहमानों की भीड़ और भीतर से आती पकवानों की मनभावन गंध से कुत्ते ने अनुमान लगा लिया कि आज कोई भोज है. वह एक ठिकाना देख वहीं लेट गया. तब तक बस्ती के दूसरे कुत्ते भी वहां पहुंच चुके थे. आदमी के साथ रहते हुए वे उसके तीज-त्योहारों, ब्याह-भोज के बारे में अनुमान लगा ही लेते और ऐसे अवसरों पर बिन बुलाए मेहमानों की भांति अचानक टपक पड़ते थे. लोग उन्हें मारते-दुत्कारते, भद्दी-भद्दी गालियां देते, मगर वे घूम-फिर कर दुबारा वहीं जम जाते थे.
भोजन की तैयारी में अभी देर थी. मेजबान लोग मेहमानों की खातिरदारी में जुटे थे. वक्त बिताने के लिए गपशप और छींटाकशी का दौर जारी था—
‘लो जी, देखते ही देखते गुणीराम की बरसी भी आ गई. आदमी खरा था, पर किस्मत बड़ी हेटी लेकर आया था. महीना-भर भी और जी लेता तो पोते का मुंह देख जाता.’ एक मेहमान ने बातचीत का सूत्र थामा तो बाकी उसी के विस्तार में जुट गए—
‘मौत से भला कौन जीत पाया है.’
‘बंदा बच्चों से कौल भरवाकर गया था कि तेरहवीं के नाम पर एक भी पाई खर्च न की जाए. बिरादरी का जोर न होता तो आज बरसी की दावत भी नसीब न होती.’
‘जाने वाले की भलाई-बुराई उसी के साथ चली जाती हैं. इसलिए इन बातों को कहने का आज कोई फायदा नहीं है. पर बंदा था अपनी ही किस्म का इंसान. हमेशा उल्टा सोचता. लोग कहते कि संतोष से बड़ा धन कोई नहीं. वह कहता असंतोष न हो तो जिंदगी ठहरी हुई नदी है. फिर जोर देकर कहता कि असंतोष ही सभ्यता को उठान देता है. सिंकदर यदि संतोष करके अपने देश में बैठा रहता तो क्या वह महान कहलाता! यही क्यों अशोक यदि कलिंग का युद्ध हारकर बौद्ध धर्म ग्रहण करता तो क्या उसको ‘अशोक महान’ कहकर सम्मान के साथ याद किया जाता. हरगिज नहीं! उसकी हर बात निराली थी. बुजुर्ग कहा करते हैं कि इंसान को चादर देखकर पांव पसारने चाहिए. वह इस बात को भी उलट देता. कहता, यह सलाह एक रात बिताने तक तो ठीक है. मगर सोते समय आदमी को यह एहसास बराबर बना रहना चाहिए कि उसकी जरूरतें चादर से बड़ी हैं. और रात बीतने के साथ ही आने वाले दिन, उनका एक-एक पल अपनी जरूरत के अनुसार चादर खरीदने को समर्पित कर देना चाहिए.’
धारा के विपरीत कही गई बातें लोगों का मनोरंजन भी करतीं. लोग गुणीराम को छेड़ते—
‘आदमी को किस्मत से ज्यादा और समय से पहले कुछ नहीं मिलता.’
‘जो लोग ऐसा सोचते हैं, वे भीड़ का गुमनाम हिस्सा हैं. उनका अपना कोई चरित्र, कोई वजूद नहीं होता. भीड़ में लोग आते हैं और चले जाते हैं. ऐसे लोगों को वक्त याद नहीं रखता. मैं ही उनकी बात पर क्यों ध्यान दूं!’ गुणीराम की ओर से जवाब मिलता.
‘क्या तुम किस्मत को नहीं मानते?’ सवाल किया जाता.
‘क्यों नहीं, मैं मानता हूं कि किस्मत उन लोगों का सहारा है, जो दुधमुंहा बच्चे की भांति हमेशा यह उम्मीद पाले रहते हैं कि यदि वे किस्मत-किस्मत कहकर रोते रहेंगे, तो भूख से व्याकुल बच्चे के मुंह से दूध की बोतल लगा देने वाली मां की तरह एक न एक दिन वह भी उनपर मेहरबान हो जाएगी.’
बातचीत रोचक हो चली थी. लोग आसपास जुटने लगे थे. कुत्ता भी आगे आकर मजा लेने लगा. कर्मकांड संपन्न कराने आए पंडितजी बड़ी देर से लोगों की बात सुनकर मन ही मन भुनभुना रहे थे. आखिर उनसे रहा न गया, बोले—
‘यह तो तृष्णा है. जितनी बुझाओगे, उतनी ही भड़कती जाएगी. गुणीराम इस हकीकत को जीते जी समझ जाता तो भवसागर से तर जाता. मैं भी सच्चे दिन से कामना करता हूं कि उसकी आत्मा को शांति मिले. परंतु मैं जानता हूं कि ऐसा होगा नहीं. आदमी को उसके कर्मों की सजा मिलती ही है. गुणीराम किस्मत को ललकारता रहा. पर आखिर पाया क्या? पोते का मुंह देखना तक नसीब नहीं हुआ. वेद-शास्त्रों में गलत नहीं लिखा है कि यहां जो जैसा करता है, वैसा ही पाता है. आखिर क्या नहीं था उसके पास. घर-परिवार, बेटे-बहू…मैंने कहा था कि अंत समय में दान-पुण्य कर, वही साथ जाने वाला है, मगर उसकी तो विपरीत मति ठहरी. सलाह देने पर तुरंत बोला था—‘मैं यह धरती तुम्हें दान करता हूं, संभालो पंडित!’
‘तब तो ठीक कहा था, बात मान लेते तो आज चक्रवर्ती सम्राट होते.’ कहकर लोग हंसने लगे.
‘‘दान में वही वस्तु दी जाती है, जिसपर दाता का अधिकार हो…!’ मैंने उससे कहा था. लोगों की हंसी की ओर ध्यान न देकर पंडित कहता गया. पर उसने यह कहकर कि— ‘इस तरह तो घर की कोई भी वस्तु मेरी नहीं है. एक-एक वस्तु पर मेरे साथ मेरे बच्चों और उनकी मां का भी अधिकार है. और ऐसी वस्तु जिसमें दूसरों का भी साझा हो, मैं अकेला दान कैसे दे सकता हूं.’ झट से इंकार कर दिया.’’
‘गुणीराम कक्का में लाख बुराई हों, पर इस बात से कौन इंकार कर सकता है उन्होंने एक ईमानदार और मेहनती आदमी की जिंदगी जी. अपने संघर्ष में वे कामयाब भी रहे. समाज में अपनी जगह बनाने के लिए उन्होंने क्या नहीं किया. मजदूर के घर जन्मे. पीठ पर बोरियां तक ढोंयी. ट्यूशन करके पढ़ाई की. जिस दौर में नौकरी आसानी से लग जाती थी, उस दौर में उन्होंने व्यवसाय को अपनाया. कामयाब हुए. बच्चे हुए तो उनके लिए अच्छी से अच्छी शिक्षा का प्रबंध किया. खुद झोपड़ी में जन्मे, पर उनके पोते का जन्म इस चार सौ गज में बने बंगले में हुआ. एक आदमी के लिए इतनी उपलब्धि क्या कम है!’
‘गहने-जेवरात, कंकर-पत्थर क्या आदमी के साथ जाते हैं! सिंकदर ने दुनिया जीती, पर जब वह गया तो दोनों हाथ खाली थे. वहां तो दान-पुण्य ही साथ जाता है.’ पंडितजी ने बात काटते हुए उसका असर देखने के लिए लोगों पर निगाह डाली. इस बार वे हैरान रह गए कि कोई भी उनकी बात को लेकर गंभीर नहीं था. उसी समय मेजबानों में से एक ने आकर बताया—
‘पंडितजी, भोजन भोजन तैयार है, चलकर जीम लें.’ पंडितजी अपना झोला समेट भीतर जाने लगे. तभी किसी ने टोका—‘महाराज, यह जानते हुए भी कि गुणीराम को आपके कर्मकांडों पर कतई भरोसा नहीं था, आपके हिसाब से उन्हें सिर्फ नर्क में ही जगह मिल सकती है, आप उनकी बरसी पर चले आए. मना क्यों नहीं कर दिया?’
‘किसी को भरोसा हो या न हो, हमें क्या, यही तो हमारा धंधा है.’ पंडित जी ने निस्पृह भाव से कहा और झोला उठाकर भोजन के लिए बढ़े. उसी समय कुत्ता जो बड़ी देर से पंडितजी की ओर घूर रहा था, अचानक झपटा इसके पहले कि लोग उसके पीछे भागें, मारे-पीटें कुत्ता उनके हाथ से झोले को छीन उसे नाली में फैंक चुका था.
ओमप्रकाश कश्यप
पंडित जी तो अपने धंधे में जुटे थे जी!
ha ha ha ha
_________maza aaya
badhaai !
गंदा है पर धंधा है ये….
बस यही बात तो पहुंचनी है कि ये सिर्फ़ धंधा है….