एक कुत्ता बाजार से गुजर रहा था. एक स्थान पर रेहड़ी, खोमचे वालों का जमघट-सा दिखाई पड़ा तो वह रुक गया. ऐसी जगह पेट भरने के लिए ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ता. अमीरों से अधिक गरीब और मेहनतकश दूसरे की भूख का सम्मान करते हैं. मगर उस दिन देर तक कोई ग्राहक न आने पर वह खड़ा-खड़ा उकताने लगा. नए ठिकाने की ओर प्रस्थान करने के बारे में सोच ही रहा था कि सामने एक गेरुआ वस्त्रधारी आदमी दिखाई पड़ा. उसे देखते ही कुत्ते के चेहरे पर व्यंग्यात्मक मुस्कान छा गई—
‘अब तो ठल जाने में ही फायदा है, बड़े परजीवी के रहते छोटे की इज्जत भला कौन करेगा.
उधर साधु एक खोमचे वाले के आगे रुका और उसके आगे हाथ फैला दिया—
‘तेरा कल्याण हो बालक!’ आज पूर्णिमा का दिन है. खुलकर दान दे बच्चा.’
‘सुबह का वक्त है, बाबा, कुछ खा लीजिए?’ खोमचे वाला गिड़गिड़ाया.
‘साधु दोपहर से पहले भोजन को हाथ नहीं लगाता…मात्र पांच रुपए की कृपा है. प्रभु तेरी मनोकामनाएं पूरी करेंगे?’
‘पांच रुपए!’ खोमचवाला सकपकाया. मानो खुद को तोल रहा हो.
‘भगवान की राह में नेकी कर बच्चा. इसका फल तुझे जरूर मिलेगा.’ खोमचे वाले के चेहरे पर परेशानी के भाव उमड़े. साधु ने ताड़ लिया, फिर घाघ महाजन की तरह बोला—
‘न…न मना मन करने की भूल मत कर देना. आज सोमवार है, भगवान भोलेनाथ का दिन. आज के दिन साधु को निराश लौटाने से भगवान महादेव कुपित हो जाते हैं.’ खोमचे वाले ने मन मारकर जेब में हाथ डाला और पांच रुपये का सिक्का निकालकर थमा दिया. साधु ने हाथ उठाकर सबको सुनाते हुए आशीर्वाद दिया. फिर निर्लिप्त भाव से वहां से खिसककर वहां से कुछ दूर खड़े रेहड़ी वाले के आगे खड़ा हो गया. वहां भी उसी तरह का अभिनय करने लगा. कुछ देर बाद कुत्ते ने रेहड़ी वाले को भी अपनी जेब ढीली करते हुए देखा.
‘मैं तो सोचता था कि पूंछ हिलाने से ही आदमी का जी पसीजता है. यह तो और भी अच्छा धंधा है. आदमी को ईश्वर और भविष्य का डर दिखाकर लूटते चले जाओ…लोग जेब ढीली करेंगे और पांव भी पड़ेंगे. काश, ईश्वर ने मुझे भी यह हुनर दिया होता.‘ कुत्ते ने सोचा. मगर अगले ही क्षण उसकी आंखों में चमक आ गई. मन हल्का हो गया—
‘दिल में सीखने की लगन हो तो प्राणी क्या नहीं कर सकता. आदमी भी तो सीखते हुए, धीरे-धीरे ही यहां तक पहुंचा है. अगर मैं साधु के साथ एक दिन भी बिता लूं तो उसके सारे हथकंडे आ जाएंगे.’ यह सोचता हुआ कुत्ता साधु के पीछे चलने लगा. रेहड़ी-खोमचेवालों को चूना लगाने के बाद साधु हलवाई की दुकान के आगे अड़कर खड़ा हो गया. हलवाई बिना बोहनी के दान देने को तैयार न था. उसने साधु को दोना-भर लड्डू भेंट किए. साधु ने कुपित होकर दोना सड़क पर फेंक दिया. कुत्ते को मौका मिला. उसने सारी लड़डू चट कर लिए. उसके बाद उसने साधु को देखा तो वह आसपास कहीं न था. वह पैनी निगाह से साधु को खोजने लगा. थोड़ी देर बाद वह एक पार्क में बैंच पर बैठा हुआ दिख गया. आसपास कोई न था. साधु दिन-भर की कमाई गिन रहा था.
कुत्ता जब उसके पास पहुंचा तो उसने साधु को नोटों की गड्डी जेब में रखते हुए देखा— ‘मुझे नोटों से क्या लेना, साधु से उसकी कला ही सीख लूं तो जिंदगी में पेट के लिए दूसरों के आगे पूंछ न हिलानी पडे़गी.’ कुत्ते ने सोचा. उसके बाद वह साधु के सामने जाकर खड़ा हो गया.
‘पेट तो भर ही गया होगा, अब यहां किसलिए आया है?’
‘आपको धन्यवाद देने, यदि आप कृपा न करते तो न जाने किस-किसके तलवे चाटने पड़ते.’
‘धंधा चमकाने के लिए तमाशा जरूरी है.’ साधु ने हंसते हुए बोला.
‘तमाशा! मैं समझा नहीं महाराज?’ कुत्ते ने पूछा.
‘समझ गया तो आदमी और कुत्ते में फर्क की कितना रह जाएगा…वैसे सड़क पर फेंकी हुई मिठाई खाकर तूने मेरा ही काम किया था.’
‘जी…!’ इस बार कुत्ता चौंका. क्योंकि अभी तक वह स्वयं को एहसानमंद मान रहा था— ‘उपकार तो आपने किया है.’
‘तू यह बात समझ ही नहीं सकता. उसके बाद जिस दुकान पर भी मैं गया. वहां पांच-दस रुपये फटाफट मिलते चले गए.’
‘कैसे महाराज?’ कुत्ते ने पूछा.
‘हलवाई से नाराज होने का नाटक करते हुए मैं जिस दुकान पर भी गया, दुकानदार से साफ कह दिया था कि अगर साधु को खाली हाथ जाने देगा तो तेरे माल का भी वही हश्र होगा जो हलवाई का हो रहा है…उसके बाद तो मुट्ठी खुलनी ही थी.’
उसी समय सामने से सिर पर लकड़ियों का गट्ठर उठाए एक स्त्री आती दिखाई पड़ी. उसके कपड़े जीर्ण-शीर्ण थे. साधु की आंखों में चमक आ गई. ‘इस स्त्री से यदि तुम उसकी आज की कमाई ला सको मैं तुम्हें हमेशा अपने साथ रखने को तैयार हूं.’
‘इसकी पूरे दिन की कमाई हड़प लेंगे तो यह खाएगी क्या?’
‘धंधे में अंधा बनना पड़ता है.’
‘महाराज अभी तक मैं आपके साथ रहने, आपके जैसा बनने के बारे में सोच जरूर रहा था. लेकिन अब लगता है कि आंख रहते अंधा बनना मेरे बूते से बाहर है. फिर भी मेरे मन में जिज्ञासा है, मैं देखना चाहता हूं कि आप इस स्त्री के पूरे दिन की कमाई को हड़पने के लिए कौन-सा नाटक रचते हैं.’ कुत्ता न भी कहता तो भी साधु को तो यह करना ही था. वह उठकर स्त्री के सामने खड़ा हो गया और बोला—
‘बेटी, तू जंगल से आ रही है, वहां पीपल के वृक्ष के नीचे से गुजरी थी न?’
‘लकड़ी बीनने के लिए पेड़ों के नीचे से रोज ही गुजरना पड़ता है.’
‘पर आज पीपल देवता की तुझपर बड़ी कृपा हुई है. मैं तेरे माथे की रेख को देखकर जान चुका हूं कि वे तुझपर बड़े प्रसन्न हैं. तेरे संकट टल गए समझो?’
‘मेरे पति ठीक तो हो जाएंगे न!’ स्त्री की आंखें चमक उठीं.
‘यही तो मैं बताने जा रहा हूं, तेरे पति न केवल ठीक हो जाएंगे, बल्कि तेरे बाकी संकट भी आज के बाद हमेशा-हमेशा के लिए टल जाएंगे. तेरे घर सुख ही सुख बरसेगा. यह चमत्कार तू आज घर पहुंचते ही देखेगी.’
‘सच!’ स्त्री ने सिर पर रखा लकड़ियों का गट्ठर जमीन पर डाल दिया, बोली—‘महाराज, आज आपने बहुत अच्छी खबर सुनाई है, मेरे पास आपको देने के लिए इन लकड़ियों के सिवाय और कुछ नहीं है. सुबह से लगकर मैं यही जुटा पाई हूं.’ इसके बाद वह खुशी-खुशी वहां से जाने लगी. कुत्ते का मुख लटक गया. वह आगे बढ़कर स्त्री से बोला—
‘बहन, ये लकड़ियां उठा लो, इन्होंने यह सब मेरे कहने पर किया है, और जो कहा, वह सब झूठ है.’
‘चुप! वर्षों के बाद आज किसी ने मुझे बेटी कहा. एक अच्छी खबर सुनाई. तू क्या जाने, इसके लिए मैं कितनी तरस रही थी. मेरे पति वर्षों से बीमार हैं. इस कारण गांव वालों ने ढंग से बात करना ही छोड़ दिया है. साल-भर पहले मेरे ससुर गुजरे थे. महीना-भर पहले सास. अब गांव में जो भी मिलता है, वह उनकी सेहत के बारे में कोई जिक्र नहीं करता. सास-ससुर की मौत के बारे में याद दिलाकर यह एहसास जरूर दिलाना चाहता है कि अगला नंबर उनका है. मैं भी जानती हूं कि गांव वाले गलत नहीं सोचते. एक न एक दिन ऐसा होगा ही. मैं अकेली, गरीब औरत भी भला कब तक मौत से लड़ सकती हूं. आज इन महाराज ने मुझे सुख की एक झलक दिखाई. इससे मुझे पति के साथ बिताए सुख के वे थोड़े-से दिन याद आ गए, जिन्हें लंबी जद्दोजहद के बीच मैं खुद भी भूल चुकी थी. अब बाकी की जिंदगी उन दिनों की याद में बिता सकती हूं.’
इतना कहकर वह स्त्री भारी कदमों से आगे बढ़ गई. साधु की गर्दन जमीन में धंसी थी. और कुत्ता, वह तो मानो सुध-बुध ही खो चुका था.
ओमप्रकाश कश्यप
बेहतरीन रचना !
शिक्षाप्रद कहानी की प्रस्तुति।
सादर
श्यामल सुमन
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