ईश्वर समझता है कि बहुत दिन हुए भक्तों का प्रसाद खाते हुए. सोचता है कि अब तो भक्तों के लिए कुछ करे. जानता है कि हर भक्त कोई न कोई आस लेकर मंदिर आता है. महंगाई का जमाना है. पहले एक पैसा खर्च करके दस लाख की कामना करता था, आजकल प्रसाद दस रुपये का चढ़ाता है, चाहत दस करोड़ की रखता है. अधिकारी के गेट पर बैठा चपरासी कम ताकतवर नहीं होता. भक्ति की नजाकत को समझकर भक्त भी ईश्वर से ज्यादा पुजारी का सम्मान करता है. चाहता है कि पुजारी अपनी ओर से कुछ सिफारिश करे, ताकि ईश्वर उनपर जल्दी ध्यान दे. लेकिन पुजारी को दिन में प्रसाद लेने की जल्दी होती है, शाम को सबकुछ समेट तुरत-फुरत घर जाने की. सैकड़ों भक्तों में से किस-किस का हिसाब रखे. ऊपर से हर भक्त कई-कई कामनाएं लेकर आता है. कुछ की मांगें इतनी उलझन-भरी होती हैं. कि पुराने जमाने के ईश्वर को पता ही नहीं चलता कि भक्त चाहता क्या है. एक समस्या और भी है. मंदिर आने वाला हर भक्त उन्हें भोग लगाता है. जिससे चौबीसों घंटे उनका मुंह चलता रहता है. उम्र बढ़ने से बदहजमी की शिकायत भी रहने लगी है. हालांकि ईश्वर के लिए यह चिंता की बात नहीं है. समाज के परजीवी वर्ग ने ईश्वर को गढ़ा ही इस प्रकार से है कि अपने आकाओं की भांति वह भी बैठे-बैठे सबकुछ पचा सके. बिना डकार, बिना किसी कृतज्ञताबोध के. वह वर्ग ईश्वर को न तो मरने देगा, न बीमार ही पड़ने देगा.
तमाम सावधानी के बावजूद कभी-कभी गलती भी हो जाती है. एक बार एक युवती आई, नया-नया विवाह हुआ था उसका. मंदिर आते ही उसने अपनी मांग रखी, भगवन् इस दीपावली पर एक ओवेन खरीदवा दो. ओवन क्या है, यह ईश्वर जानते ही नहीं थे. उन्होंने चित्रगुप्त की मदद ली. उसने कई भाषाओं के शब्दकोश खंगाल कर बताया कि ओवन तंदूर को कहते है. जिसमें लोग आजकल खाना बनाते हैं. उसी रात ईश्वर ने एक कुम्हार को दर्शन देकर बड़ा-सा तंदूर उस युवती के घर पहुचाने का आदेश सुना दिया. अगले दिन कुम्हार तंदूर लेकर खुशी-खुशी उस युवती के घर पहुंच गया और चिल्ला-चिल्लाकर लोगों को बताने लगा कि खुद ईश्वर ने उसे ऎसा करने आदेश दिया है. तंदूर देख लड़की के घर के सामने पड़ोसी जुट आए. उसकी खूब हंसी हुई. उसके बाद लड़की ने मंदिर आना बंद कर दिया. अब सरेआम कहती फिरती है, कि ईश्वर पागल है, सठिया चुका है.
इसी तरह की एक और घटना है, जब ईश्वर के कारण उसके एक भक्त को परेशानी उठानी पड़ी थी. एक स्त्री की पड़ोसिन रोज नई साड़ि़यां बदलती थी. इससे चिढ़कर उसने ईश्वर के आगे फरियाद की थी कि पड़ोसन के घर आयकर वालों का छापा पड़ जाए. बिना यह जाने-समझे कि आयकर क्या होता है, ईश्वर ने ‘तथास्तु’ कह दिया. छापा पड़ा. छापे के दौरान आयकर अधिकारी उस स्त्री के घर भी आ धमके. दरअसल दोनों स्त्रियों के पति एक ही कार्यालय में काम करते थे. फर्क सिर्फ इतना था कि उस स्त्री को पति की दो नंबर की कमाई साड़ियों पर खर्च करने का शौक था, दूसरा अपनी सारी कमाई जुए और शराब में उड़ा देता था. उन दोनों स्त्रियों के पति आजकल जेल में हैं. वह स्त्री अब भी मंदिर आती है. सिर्फ भक्तों को यह बताने के लिए ईश्वर और उसके पति में कोई अंतर नहीं है. दोनों ही बिना दिमाग के काम करते हैं. शिकायत-भरे स्वर में जोर-जोर से कहती है कि वह तो हकीकत से अनजान थी. लेकिन ईश्वर तो सबकुछ जानता था. उसे तो वही करना चाहिए था, जो उनके हित में हो.
ईश्वर को समझ नहीं आता कि उस लड़की और स्त्री को कैसे समझाए, कैसे बताए कि जिस वर्ग ने उसको गढ़ा है, उसने उसे खुलकर सोचने लायक दिमाग दिया ही नहीं. ईश्वर को पांच हजार वर्ष पुराने ग्रंथ पढ़ने को दिए जाते हैं. आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से उसको दूर रखा जाता है. विपाशा, मल्लिका और मुग्धा गोडसे के जमाने में उसको रंभा, मेनका और उर्वशी की तस्वीरें दिखाई जाती हैं. और तो और उसका खान-पान पहनावा, भाषा, वेशभूषा सभी कुछ पांच हजार वर्ष पुराना है. भला बताओ तो स्टेनगन और मिसाइल के जमाने में आजकल तलवार और फरसे से कौन लड़ता है? एक नेता बीस ग्राम की टोपी पहनकर देश धकिया लेता है, ईश्वर को बीस पाउंड का मुकुट सिर पर धारण कर सुबह से शाम तक बैठना पड़ता है. शाम होते ही पुजारी तो घर चला जाता है. ईश्वर की रात उस मुकुट की सुरक्षा में बीतती है. क्या करे, मजबूरी है, जब भी वह कुछ नया सीखने, नएपन को अपनाने का दावा करता है, वह वर्ग उसके बदले नया ईश्वर गढ़ लेने की धमकी देने लगता है.
कभी-कभी ईश्वर का मन भक्तों को सबकुछ बतला देने, उन्हें सावधान करने का होता है. लेकिन घाघ पुजारी कभी इतना अवसर ही नहीं देता कि ईश्वर मन की बात अपने भक्तों से कह सके. एक-दो भक्तों को ईश्वर ने सच बताया. वे जाकर बस्ती वालों को सावधान करें, उससे पहले ही पुजारी ने उन्हें पागल घोषित करवा दिया. लोग अब भी ‘पागल-पागल’ कहकर उन भक्तों का पीछा करते रहते हैं. उनकी हालत के लिए ईश्वर खुद को जिम्मेदार मानता है और जब भी किसी भक्त के लिए कुछ करने की बात आती है, चुप्पी साध लेता है. अगर आप कभी मंदिर जाएं और उसके चेहरे पर लिखी इबारत पढ़ सकें तो आपको लगेगा कि मजबूर ईश्वर आपको बताना चाहता है कि वह अशक्त है, कुछ नहीं कर सकता. आदमी को अपना भला-बुरा जो भी करना-सोचना है, वह खुद करे-सोचे.
ईश्वर खुद चाहता है कि इकीसवीं शताब्दी में आदमी उसके नाम की बैशाखी के सहारे चलना छोड़ दे.
ओमप्रकाश कश्यप
ईश्वर क्या चाहता है ये तो पता नहीं..मगर इन्सानी फितरत क्या कर जायेगी उसका अंदाजा तो ऐसा ही लगता है.
ishwar ke nazariye se dekhna bhi bahut achha laga is jag ko
बहुत अच्छा व्यंग्य है…मनुष्य की फ़ितरत और कारनामे देख कर तो ऐसा ही लगता है कि ईश्वर मजबूर है।
डा.रमा द्विवेदी